भारत! सोने की चिड़िया! पर यह सोने की चिड़िया आदिकाल से ही पड़ोसियों और शत्रुओं की लालच भरी नजरों में बसी रही! तमाम लुटेरे आए, इस चिड़िया के पंखों को कुतेरा, पर इस मिट्टी ने बार बार अपने ऐसे सपूत खड़े किए जिनके बाहुबल ने इसे झुकने नहीं दिया!
1630 का साल था वो!समूचे हिंदुस्तान पर तीन सल्तनतों का राज्य था-उत्तर में मुगलशाही, दक्षिण यानी दक्खन में एक तो बीजापुर की आदिलशाही और दूसरी गोलकुंडा की कुतुबशाही!
तीनों ही मुसलमान शासक, जिन्होंने कभी इस मिट्टी को अपना नहीं समझा, बल्कि स्वयं को इसका विजेता समझा! उनके शासन का मतलब सिर्फ लूटपाट, धर्म परिवर्तन और अधर्म का साम्राज्य कायम करना था!चारों तरफ अंधकार का साम्राज्य था कि तभी सन 1630 में सह्याद्रि की पहाड़ियों से एक सूरज निकला, जिसने इन तीनों तानाशाहियों को नाकों चने चबवा दिए और उनकी नाक के नीचे एक स्वतंत्र स्वराज्य की स्थापना की!
उस सूरज का नाम था- शिवाजी शहाजी भोंसले!
वैसे तो यह नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, किंतु फिर भी भारत का इतिहास कुछ ऐसे लोगों ने लिखा है, जिन्होंने केवल दिल्ली सल्तनतों और मुगलिया राजदरबारों का ही गुणगान किया है! अतएव आवश्यकता है कि उस घिसे पीटे इतिहास से बाहर निकलकर इतिहास का पुनर्लेखन हो और ऐसे शुरों की गाथाएं जन जन तक पहुँचे!
19 फरवरी सन 1630 को शिवनेरी के दुर्ग में शाहाजी भोंसले (जो आदिलशाह के सरदार थे)की पत्नी जिजाऊ यानी जीजाबाई को उनका दूसरा पुत्र हुआ, जिसका नाम शिवनेरी दुर्ग में जन्म लेने के कारण “शिवा” या “शिवबा” रखा गया! जीजाबाई के ज्येष्ठ पुत्र का नाम “सम्भाजी” था ,जो कर्नाटक में अपने पिता शाहाजी के साथ रहते थे!
शिवा का बचपन माता जीजाबाई से रामायण, महाभारत और वीरता की कथाएं सुनते हुए तथा दादाजी कोंडदेव की निगरानी में शस्त्र शिक्षा लेते हुए बीता! तब किसे खबर थी कि यह बालक अपने नाम को सार्थक करते हुए इतना असाधारण निकल आएगा!
अल्पायु में ही सह्याद्रि की पहाड़ियों से निकले उस सूरज ने शास्त्र और शस्त्र दोनों में निपुणता प्राप्त कर ली और अपने पिता से भेंट करने कर्नाटक गए! पिता उन्हें लेकर आदिलशाह के दरबार में गए!पिता ने सुल्तान को मुजरा( प्रणाम) किया, परन्तु निर्भय शिवा ने सुल्तान को मुजरा नहीं किया! और तभी से पिता की झुकती गर्दन को देखते हुए अपनी माटी में अपना राज्य स्थापित करने की कसम खा ली!
वे माता के साथ पुणे लौटे!लोगों को संगठित करना शुरू किया और मात्र 16 वर्ष की अवस्था में, शिवरात्रि के दिन रोहिणेश्वर महादेव के सामने शपथ लेते हुए अपनी माटी में अपना राज, यानी “स्वराज” स्थापित करने की प्रतिज्ञा कर ली! उसी समय अनेक विश्वासपात्र मित्र जैसे तानाजी, सूर्यजी, येसाजी, बाहिरजी, उनसे जुड़ते चले गए और उसी समय उन्होंने, उसी अल्पायु में ही तोरणा के किले पर हमला बोल दिया! बिना अधिक श्रम किए, तोरणा का किला फतेह कर लिया! यह स्वराज का पहला कदम था!
इसके बाद वो दक्खन का शेर कहाँ रुकने वाला था! उसने एक के बाद एक किले जितने और स्वराज्य में शामिल करने शुरू कर दिए! सदियों बाद मराठी जनता में एक शक्ति का संचार हुआ और हिन्दू रक्त उबाल मारने लगा!लोग जुड़ते गए, किले जीतते गए और स्वराज्य खड़ा होता गया!
एक पच्चीस तीस साल के लड़के की बढ़ती शक्ति ने न सिर्फ दक्खिन के सुल्तानों, बल्कि आगरा और दिल्ली में बैठे मुगलिया दरबार की नींव हिलाकर रख दी थी!
शिवाजी के बढ़ते कदमों से घबराकर जब बीजापुर का सुल्तान उनपर लगाम नहीं लगा सका तो उसने धोखे से उनके पिता शहाजी को कैद करवा दिया और उनके ज्येष्ठ भाई सम्भाजी को एक युद्ध मे धोखे से तोप के गोले से उड़वा दिया!
खबर मिलते ही वो सूरज क्रोध में इतना लाल हुआ कि भोर की लालिमा भी शर्मा जाए! पर फिर भी उसने धैर्य और नीति का सहारा लिया और पितृभक्ति की पराकाष्ठा दिखाते हुए जिन मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया उन्ही मुगलों से संधि कर ली! बदले में कुछ प्रदेश मुगलों को देना पड़ा, किंतु पिता की आजादी से बड़ा सुख और क्या हो सकता था!
अनेक किले, बड़े प्रदेश छीन गए, पर वह शेर फिर भी न रुका, न थमा, न थका! उसने पुनः स्वराज्य में किलों को जीतना और शामिल करना शुरू कर दिया! सल्तनतें एकबार फिर घबरा उठीं!
तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा! उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बुलाया!
शिवाजी अफजल खान के लिए तैयार थे! वह जानते थे कि वह इंसान नहीं, हैवान का ही प्रतिरूप है! उनका क्रोध यह जानकर और भी चरम पर था कि राजगढ़ आने से पहले अफजल खान ने उनकी कुलदेवी, उनकी अधिष्ठात्री देवी तुलजापुर की भवानी की मूर्ति तोड़ी है!
अफजल हरे रंग का सपना पाले भगवे की मिट्टी में आया था, पर वह नहीं जानता था कि वह स्वयं काल के ग्रास में जा रहा है!
अफजल से मिलना तय हुआ! महाराज जानते थे कि वह कपट करेगा, इसलिए उन्होंने कपड़ों के अंदर ढाल बांध ली और उंगलियों में व्याघ्रनख पहन लिया था!
अफजल आया! दोनों गले मिले और ज्योंहि अफजल खां ने शिवाजी को बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, शिवाजी ने हाथ में छिपे बघनखे से उसका पेट बीचोबीच फाड़ डाला! अफजल मारा गया। इससे उसकी सेनाएं अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से दुम दबाकर भाग गईं और जो बची, आसपास की पहाड़ियों में तैनात शिवाजी महाराज की सेना ने उनका सफाया कर दिया!
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुगल बादशाह औरंगजेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार शाईस्ता खान को को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया! लेकिन सुबेदार को मुंह की खानी पड़ी! लड़ाई के पहले ही उन्होंने कुछ ही लोगों को साथ लेकर लाल महल में आराम फरमा रहे शाइस्ता खान पर हमला बोल दिया और उसे दौड़ा दौड़ा कर मारा! इसी मुठभेड़ में शाइस्ता खान अपनी जान बचानेके लिए छज्जे से नीचे कूदा, पर अंधेरे में बिना देखे महाराज ने उसपर तलवार का जोरदार वार किया और उसकी तीन उंगलियां कट गईं!
तीन साल तक पुणे के लाल महल पर कब्जा करने का बदला शाइस्ता खान को अपनी तीन उंगलियां देकर चुकानी पड़ी!
इसके बाद शाइस्ता खान कभी पुणे नहीं आया! कहते हैं उसके भीतर शिवाजी का भय इतना व्याप्त था कि एक बार जब वह अपनी बेगम के साथ अपने महल में था, तभी हवा की वजह से एक प्याला गिरा! वह घबरा उठा! उसकी बेगम ने कहा, “कुछ नहीं, हवा है!
तो शाइस्ता खान ने डरते हुए कहा….”मुझे लगा शिवा है!”
ये खौफ था मुगलों में दक्कन के उस सूरज का! उस राजा का!
एक नहीं, अनेक रूप थे भोसले वंश के उस सूर्य के!
पिता की कैद पर पितृभक्ति दिखाते हुए अपने जीते किले मुगलों को वापस कर देने वाला रूप!
आदिलशाह के दरबार मे जाकर भी उसके आगे माथा न झुकाने वाला रूप!
अफजल खान द्वारा अपनी भवानी तुलजा की मूर्ति तोड़ने का समाचार पाकर आग बबूला हो जाने वाला रूप और अफजल को मारने के बाद उसका शीश अपनी माता के चरणों मे भेंट करके उसे महल के प्रवेश द्वार पर गाड़ने का आदेश देने वाला रूप!
औरंगजेब के भरे दरबार में अपने अपमान से क्रोधित होकर “इस दरबार में मैं फिर कभी नहीं आऊंगा!”, कहकर तमतमाते हुए बिना किसी की परवाह किए निकल जाने वाला राजा!
पुनः आगरा में औरंगजेब की कैद से लड्डू की टोकरियों में बैठकर चुपचाप निकल आने वाला रूप!
अपने हर एक सरदार, हर एक मित्र की वीरता पर उसे सम्मान देने वाला और उनके बलिदान पर फफक कर रोने वाला राजा था वो भोंसले वंश का सूर्य!
प्रतापराव,,तानाजी की मृत्यु पर अपनी सुधबुध भूलकर कई दिनों तक भोजन तक न करने वाला राजा! यह उसके मित्रप्रेम की पराकाष्ठा थी!
उमरठ के उस गांव में हजारों आंखें खुशी के आंसू रोई थीं जब अपने पुत्र रायबा का ब्याह छोड़कर तानाजी कोंडाणा जीतने चल पड़े और अपना बलिदान देकर भी दुर्ग को जीता और उनके रायबा की शादी उसी दिन, तय मुहूर्त पर ही, स्वयं महाराज ने पहुचकर करवाई!
महादेव और आदिशक्ति का अनन्य भक्त वह राजा, केवल एक राजा नहीं था, वह मराठा धरती का वह लाल था जिसने लाखो सुप्त पड़े नसों में ऊर्जा जगाई! जिसने सम्पूर्ण महाराष्ट्र और बाद में दक्षिण को एक किया और अंत तक क्रूर औरंगजेब और मुगलिया सल्तनत की नींद हराम किए रखी!
आलमगीर औरंगजेब हमेशा सूफी तस्बीह के मनके फेरा करता था और महाराज गले में भोंसले कुल और और देवी तुलजा भवानी के आशीष की परिहायक कपर्दिक की माला गले में धारण किए रहते थे! हर अच्छी या बुरी खबर सुनते ही उनका हाथ कपर्दिक की उस माला पर चला जाता था, और मुंह से “जगदम्बे! हे जगदम्बे!” निकल पड़ता था!
औरंगजेब की सेना बड़ी थी, पर शिवाजी राजे का सीना बड़ा था!
औरंगजेब कभी जीत नहीं सका, शिवाजी कभी हार नहीं सके!
तस्बीह के मनकों ने कभी औरंगजेब के अखंड हिंदुस्तान का बादशाह बनने का स्वप्न पूरा नहीं होने दिया, और भवानी की उस कपर्दिक माला ने शाहजी के उस बेटे को समूचे दक्खन का “छत्रपति राजा” बना दिया!
सन 1674 में सदियों बाद पहली बार किसी हिन्दू राजा का सम्पूर्ण शास्त्रोक्त विधि से राज्याभिषेक हुआ और तब यह राजा “छत्रपति’ कहलाया!
हिंदुओं के लिए एक अलग राजगद्दी बन गई है, यह समाचार पाकर औरंगजेब अपना सर पकड़कर रोया था!
कितना फर्क था न उस क्रूर, हैवानियत की प्रतिमूर्ति औरंगजेब और उन “क्षत्रियकुलवासंत” शिवाजी महाराज में! एक ने जबरन हिंदुओं को तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन कराए और एक ने भयवश मुस्लिम बने हुए हिंदुओं को भी वापस शुद्धिकरण द्वारा हिन्दू बनवा दिया!
वह छत्रपति राजा, जो औरंगजेब द्वारा तोड़े गए काशी विश्वनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना करना चाहता था और इस घटना से क्रोधित होकर उसने अंग्रेजों और मुगलों की सबसे बड़ी व्यापारिक मंडी, “सूरत” को दो बार लूटकर “बेसुरत” बना दिया था!
उसी क्रोध में उसने मुगलों से की हुई हर संधि तोड़ दी! वह छत्रपति राजा, दक्षिण को एक कर अब उत्तर की ओर बढ़ना चाहता था! काशी में बाबा विश्वनाथ की पुनर्स्थापना करना चाहता था, किंतु नियति को शायद यह मंजूर नहीं था!
अपने ज्येष्ठ पुत्र और दरबारियों में विवाद, अपनी दूसरी रानी सोयराबाई के षड्यंत्रों से दुखी होकर वह राजा बीमार पड़ा और मात्र 50 वर्ष की आयु में ही शिवनेरी में उदित हुआ वह सूरज रायगढ़ में अस्त हो गया!
3 अप्रैल 1680 का वह काला दिन था,जिसने उस “हिन्दुपद पादशाह” राजा को हिंदुस्तान से छीन लिया!
किंतु उस दिन केवल वह राजा ही मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ था, बल्कि उस दिन इतिहास के एक अध्याय की समाप्ति हुई थी, एक युग की समाप्ति हुई थी, एक कालखंड की समाप्ति हुई थी!
जय हो🚩🚩