हजारों वर्षों पूर्व में भारतीय सनातन संस्कृति की जिन परम्पराओं को जीवन शैली में जोड़ा गया था, वह आज भी अध्यात्मिक मूल्य़ो के साथ साथ सामाजिक एवं वैज्ञानिकता के मापदण्डो पर खरी उतरती है। परन्तु भारत पर बाहरी क्रूर अक्रान्ताओ द्वारा किये गये शासनो ने भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किन्तु जैसा कि नाम के अर्थ से ही ज्ञात होता है सनातन अर्थात शास्वत। अतः हमेशा बना रहने वाला।इसीलिए तमाम विदेशी षड़यंत्रकारियो द्वारा सनातन संस्कृति के महत्त्व को कम करने एवं उसे रुढ़िवादी घोषित करने के तमाम प्रयास असफल ही हुए और सनातन संस्कृति का महत्व जैसा कल था वैसा आज भी है और आगे भी रहेगा।इसका प्रमाण वर्तमान में फैली कोरोना महामारी से निपटने और बचाव के लिए वैश्विक स्तर पर जारी किये गये दिशा निर्देशों में विद्यमान है। आईये कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डालकर यह समझते हैं कि कोरोना महामारी ने कैसे भारत ही नहीं अपितु दुनिया को भारतीय सनातन संस्कृति की ओर मोड़ दिया।साथ ही उन तमाम भारतीयों को भी यह एक सबक है जो तथाकथित आधुनिक बनने की होड़ में भारतीय संस्कृति को कमतर आंककर पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठ समझने की भूल कर बैठे थे।
आज पूरी दुनिया में अतिथियों के अभिवादन करने का तरीका पुनः सनातन संस्कृति में विद्यमान “नमस्ते” ने प्राप्त कर लिया है। विनम्रता प्रदान करने वाला यह शब्द संस्कृत के नमस शब्द से निकला है। नमस्ते, दो शब्दो नमः एवं अस्ते से मिलकर बना है, नमः अर्थात झुक गया एवं असते अर्थात अहंकार से भरा सिर। जिसका ताजा उदाहरण हाल ही में वैश्विक स्तर पर भी देखने को मिला। जर्मनी की वाइस चांसलर एंजेला मर्केल फ्रांस के दौरे पर थी जहां उनका अभिवादन फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्युअल मेक्रोन ने “नमस्ते” से किया। इस घटना ने एक वैश्विक खबर का रुप ले लिया जिसको भारतीय मीडिया ने काफी वृहद स्तर पर प्रसारित किया और करें भी क्यूं ना आखिर वैश्विक स्तर पर लोग सनातन संस्कृति को जो अपना रहे हैं। जड़ी बूटियों का महत्व – एक बार पुनः लोगों को यह समझ आ गया है कि समस्त औषधियों का मूल हमारे सनातन संस्कृति के तमाम महर्षियों द्वारा लिखी गई पुस्तकों में उल्लेखित प्राकृतिक उपचारों से ही संभव है।आज इस महामारी के कारण कुछ ही सही किन्तु जड़ी बूटियों ने पुनः अपना स्थान घरो में सुनिश्चित कर लिया है। लोग आज तुलसी / गुर्च आदि के रस से निर्मित काढ़े को पीने के लिए मजबूर हैं। सनातन संस्कृति में सदा से ही पेड़ पौधों, नदियों को पूजनीय माना गया है। सनातनी जब बरगद, पीपल की पूजा करते हैं, नदियो की पूजा करते हैं तो लोग उन्हें रुढ़िवादी कहकर ताना मारते थे उपहास उड़ाते थे किन्तु आज पूरी दुनिया में फैली महामारी और आये दिन आने वाली किसी ना किसी आपदा का कारण अब वैज्ञानिकों ने भी दुनिया भर में हो रहे प्रकृति के दोहन को माना है, नदियों में बढ़ रहे प्रदूषण को माना है। वो फिर चाहे दक्षिण अमेरिका के अमेजन वर्षा वनों में लगी आग हो या फिर आस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भीषण आग हो, दोनों ही घटनाओं ने प्रकृति संरक्षण को लैकर पूरे विश्व को चिंता की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है।अब प्रकृति संरक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर बड़े बड़े संगठनों का गठन होना प्रारम्भ हो गया है जिस प्रकृति संरक्षण की बात सनातन संस्कृति में हजारों वर्षों से विद्यमान थी।
कुछ वर्षों पूर्व तक भारत में जब कोई अतिथि घर आता था तो दरवाजे पर ही उनके हाथ पैर आदि धुलाने की परम्परा थी जो अभी भी भारत के कुछ ग्रामीणांचलों में जीवित है। एक तरफ तो यह सम्मान का प्रतीक था तो दूसरी ओर बाहर से आने के कारण हाथ, पैर धुलने से कीटाणु भी घर के बाहर ही रह जाते थे, आज कोरोना ने वही स्थिति पुनः वापस ला दी आज लोग पानी की जगह किसी मीटिंग हाल के बाहर या घर में आने से पहले अपने आप को सैनेटाइज करते हैं तभी घर में प्रवेश करते हैं। ऐसे ही तमाम और भी उदाहरण आज आपको सामान्य जीवन शैली में शामिल होते देखने को मिल जाएंगेे जिनको लोगों ने आधुनिकता की होड़ में विस्मृत कर दिया था परन्तु आज कोरोना महामारी ने भूली हुई सनातन संस्कृति के महत्त्व को पुनः उन्हे समझा दिया है, कि सनातन वास्तव में शास्वत है और यह सर्वोत्तम जीवन शैली का बोध कराता है।
अभिनव दीक्षित