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“राह के रोड़े, बड़ी बेरहमी से तोड़े”

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राजनीति का एक ही नियम है, दुश्मन को या तो परास्त कर दो, या उसे अपना बना लो या उसे कहीं का भी मत छोड़ो। राजनीति के इस नियम को कांग्रेस शुरुआत से ही बखूबी राजनीति के इस अलिखित नियम को मानती आई है। इसकी शुरुआत आज़ादी से भी पहले ही हो गई थी जब सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए लेकिन महात्मा गांधी ने कुटिल चाल चलते हुए बोस से त्यागपत्र दिलवा दिया। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को भी दरकिनार करते हुए नेहरू की राह आसान करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी।


नेहरू ने 1964 तक राज किया लेकिन उनकी मौत के बाद कांग्रेस में एक मंडली ने अपनी गहरी पैठ बना ली। इस मंडली में के. कामराज, एस. निजालिंगप्पा, एस. के. पाटिल, एन. संजीवा रेड्डी जैसे नेता शामिल थे। इस मंडली ने शास्त्रीजी को प्रधानमंत्री बनाया लेकिन शास्त्रीजी बहुत लंबे समय तक पद पर नहीं रह सके और मात्र दो वर्षों बाद ही जनवरी 1966 में ताशकंद में उनकी रहस्यमय ढंग से मृत्यु हो गई।

शास्त्रीजी के बाद मोरारजी देसाई कांग्रेस के बहुत ही प्रभावशाली नेता थे लेकिन इस मंडली को मोरारजी देसाई का बेबाक और स्वतंत्र रवैया रास नहीं आ रहा था, सो इस मंडली ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया।

नेहरू के बाद ये इंदिरा गांधी के दौर की शुरुआत थी और इंदिरा गांधी ने अपने शत्रुओं को निपटाने में राजनीति की किताब का कोई भी दाँवपेंच चलाने से कोई गुरेज नहीं किया बल्कि किताब में कुछ दाँवपेंच इंदिरा ने ही जोड़ दिये।


इंदिरा गांधी ने सबसे पहले मोरारजी नाम के काँटे को ही उखाड़ फेंकने का काम किया और इसके लिए उन्हें बतौर वित्तमंत्री काम करने के लिए दबाव बनाया साथ ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला किया वो भी मोरारजी देसाई को विश्वास में लिए बिना। इससे क्षुब्ध होकर मोरारजी देसाई ने त्यागपत्र दे दिया।


इसके बाद इंदिरा को इस पूरी मंडली से ही पीछा छुड़ाना था और इसके लिए उन्होंने राष्ट्रपति चुनावों का सहारा लिया। आपातकाल लगाकर इंदिरा गांधी ने देश को मनमाने ढंग से चलाया और अपने ख़िलाफ़ लिखने, बोलने वाले हर नेता, पत्रकार को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया। आज आए दिन लोकतंत्र की हत्या की बात करने वाली कांग्रेस आपातकाल रूपी इस जघन्य अपराध की कभी बात करना तो दूर उस पर कोई पश्चाताप भी नहीं करती है।

अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अनाथ कांग्रेस ने एक बार फिर गांधी परिवार से ही पायलट की नौकरी कर रहे अनुभवहीन राजीव गांधी को इंदिरा के रिक्त स्थान पर भर दिया गया और इंदिरा गांधी की कलश यात्रा को देश भर में घुमाया। लोगों की भावनाओं को भुनाने और उन्हें इमोशनल ब्लैकमेल करने का इससे बड़ा और गिरा हुआ कोई दूसरा उदाहरण इसके पहले और बाद में कभी देखने को नहीं मिला।

राजीव के दौर में पीवी नरसिम्हा राव और प्रणव मुखर्जी को खासा महत्व दिया गया। अनुभवहीन राजीव गांधी कभी कोई फैसला खुद नहीं ले सके थे। श्रीलंका में बिना किसी तैयारी के शांति सेना भेजकर लिट्टे के हाथों हज़ारों भारतीय सैनिकों की शहादत हुई और तमिल लोगों की नाराज़गी राजीव गांधी की हत्या का कारण बनी।

पीवी नरसिम्हा राव एकमात्र गैर गांधी परिवार कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। लेकिन इसके बाद सोनिया गांधी का दौर शुरू हुआ और सोनिया गांधी ने शुरुआत ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को जबरन पद से हटाकर की थी। यहाँ तक कि नरसिम्हा राव के पार्थिव शरीर को भी त्रिमूर्ति भवन में लाने की इजाज़त नहीं दी थी।

कांग्रेसी नेताओं, समर्थकों को गांधी परिवार से कोई दमदार नेता चाहिए था जो कि सोनिया गांधी के रूप में उन्हें मिल चुका था। अटलजी की सरकार को एक बार एक वोट से गिरवाने के बाद और उसके बाद तमाम इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया को अपना पालतू कुत्ता बनाकर सोनिया ने अटलजी के ‘शाइनिंग इंडिया’ कैम्पेन की धज्जियाँ उड़वा दीं। सहयोगी दलों का दल “एनडीए” बनाकर कुछ दलों की  खिचड़ी सरकार अटलजी ने बखूबी चलाई। अपना कार्यकाल पूरा करने वाली ये पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी।

मीडिया के दिखाए अर्धसत्य/असत्य को देश की जनता ने सच मान लिया और अटलजी के नेतृत्व में  2004 का चुनाव हार गए। इससे बेहद दुखी अटलजी ने सदा के लिए राजनीति से ही सन्यास ले लिया और स्वयं को सक्रिय राजनीति और सार्वजनिक जीवन से अलग थलग कर लिया। अपना शेष जीवन अटलजी ने इसी तरह गुमनामी में बिता दिया।

2004 का चुनाव सोनिया गांधी के नेतृत्व में “यूपीए” ने लड़ा और जीतने में कामयाबी हासिल की। सोनिया गांधी इस जीत से बेहद उत्साहित थी और देश की अगली प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए बैठी थीं लेकिन उनके इस सपने को सुब्रमण्यम स्वामी ने तोड़ दिया। उनके विदेशी मूल ने उनको प्रधानमंत्री बनने से संवैधानिक तौर से रोक दिया। 

लेकिन चतुर चालाक सोनिया और उनके सिपहसालारों ने इसे भी भुनाने में  देरी नहीं की और सोनिया गांधी को महान बताते हुए देश की जनता को बताया गया कि सोनिया गांधी तो ‘त्याग की मूर्ति’ हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया। इसके बाद कांग्रेसी नेताओं द्वारा सोनिया की शान में क़सीदे गढ़ने का भौंडा प्रदर्शन भी किया गया।
अपने प्रधानमंत्री बनने के सपने के चकनाचूर होने की चोट सोनिया गांधी को बड़ी गहरी लगी थी और उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में एक ऐसा नेता चाहिए था जो कि ‘विवादास्पद’ ना हो और उनके इशारों पर हर काम करने को राजी हो।
इसके लिए मनमोहन सिंह से बेहतर कोई आदमी हो नहीं था। एक ओवर रेटेड अर्थशास्त्री और राजीव गांधी की तरह मनमोहन सिंह की “मि. क्लीन” की छवि के नीचे अनगिनत काले कारनामों को अंजाम दिया गया। मनमोहन सिंह भी ‘रबर स्टैंप’ बनकर पूरी शिद्दत के साथ जी हुजूरी करते रहे जो कि आजतक जारी है।

जिस नेता ने सोनिया गांधी का साथ देने से मना किया या नखरे दिखाए उन्हें सीबीआई का डर दिखाकर उनसे समर्थन लिया गया। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट को भी एक बार ये टिप्पणी करनी पड़ी थी कि सीबीआई सरकारी तोता है वो वही बोलता है जो उससे बुलवाया जाता है। सीबीआई को ‘कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन’ तक कहा गया।
लेकिन बेपरवाह सोनिया गांधी सत्ता प्राप्ति और राह में आने वाले हर रोड़े को बड़ी ही बेरहमी से तोड़ने, कुचलने में लगी रही। तब गुजरात के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह को भी दबाने, कुचलने के लिए हर तरह के हथकंडे आजमाये गए। अमित शाह को गृहमंत्री रहते हुए जेल में तक डाल दिया गया जो कि स्वतंत्र भारत की एकमात्र घटना है। गोयाकि कांग्रेस और सोनिया को अंदाज़ा हो गया था कि अगर मोदी शाह को नहीं रोका गया तो ये हमारी लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर सकते हैं।

2014 के लोकसभा चुनावों में ये हुआ भी और एक।लंबे समय बाद पूर्ण बहुमत वाली और पूर्ण रूप से भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी फिर 2019 में भी भारतीय जनता पार्टी की दूसरी बार सरकार बनी लेकिन सबके बीच भी कांग्रेस सिस्टम में बैठाए अपने लोगों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर नए नए हथकंडे अपनाकर मोदी सरकार को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।

बड़ी मुश्किल से 2018 में राजस्थान और मप्र में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद तथाकथित कांग्रेस आलाकमान यानी कि गांधी परिवार ने युवा नेताओं सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया की बजाय परिवार की खुशामद करने वाले अशोक गहलोत और कमलनाथ को राजस्थान और मप्र का मुख्यमंत्री बनाया।

पायलट और सिंधिया इससे बेहद नाराज हुए। सिंधिया ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद की माँग की जो कि उन्हें नहीं दी गई, इसके बाद उन्होंने राज्यसभा के लिए अपने नाम की सिफारिश की लेकिन आलाकमान ने इसे भी ठुकरा दिया।
इससे आहत ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने कुछ समर्थक विधायकों के साथ मिलकर पार्टी के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी और भाजपा से हाथ मिलाकर मार्च 2020 में कमलनाथ सरकार गिरा दी। एक बार फिर शिवराजसिंह ने मप्र की बागडोर संभाल ली।

सचिन पायलट कुछ समय से ज्योतिरादित्य सिंधिया के संपर्क में थे और उनके अनुभवों के बारें में जानकारी ले रहे थे। बीते कुछ दिनों में सत्ता परिवर्तन की कुछ ऐसी ही सुगबुगाहट राजस्थान में भी चल रही थी लेकिन अशोक गहलोत और गांधी परिवार को इसकी भनक लग गई। 

वरिष्ठ पत्रकार पंकज वोरा ने ‘द संडे गार्जियन’ में एक बड़ा खुलासा करते हुए लिखा कि सचिन पायलट को सेक्स स्कैंडल में फँसाकर उनका राजनीतिक जीवन समाप्त करने की पूरी तैयारी कर ली गई थी और इस षड्यंत्र की भनक लगते ही सचिन पायलट सतर्क हो गए और राजस्थान से निकल गए। 

कांग्रेस की इस चाल पर पर्दा डालने के लिए ही पायलट को तथाकथित समन जारी करने और उससे पायलट के नाराज़ होने की कहानी रची गई। अब तो अशोक गहलोत खुलकर सचिन पायलट को नाकारा, घटिया आदमी बताने से भी बाज़ नहीं आ रहे।

लंबे समय से कांग्रेस प्रवक्ता रहे संजय झा को भी गांधी परिवार की विचारधारा के विपरीत ट्वीट करने पर पार्टी द्वारा निष्कासित कर दिया गया। इसी कड़ी में अलग अलग राज्यों के आधिकारिक कांग्रेस ट्विटर हैंडल रोज़ प्रधानमंत्री मोदी टारगेट कर रहे हैं, उनके लिए निम्नतम स्तर की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं।

लेकिन शत्रुओं को ठिकाने लगाते लगाते जाने अंजनाने कांग्रेस अब खुद को ही ठिकाने लगाने में लगी है। गांधी परिवार की असलियत सोशल मीडिया के माध्यम से जन जन तक पहुँच रही है। गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं जो कि कांग्रेस को जड़ सहित उखाड़ने में महती भूमिका निभा रहे हैं।

अगर यही सब जारी रहा तो एक दिन इतिहास में लिखा जाएगा – एक थी कांग्रेस 

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