18.1 C
New Delhi

अलेक्जेंडर डफ – एक शिक्षाविद् या एक दुरात्मा

Date:

Share post:

भारत सदैव ही ज्ञान आधारित समाज रहा है। यहां शिक्षा को जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। भारत में, ज्ञान को एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में लगातार पीढ़ियों तक पारम्परिक शिक्षा के रूप स्थानांतरित किया जाता रहा है। प्राचीन समय में, विद्वानों को ज्ञान की सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए बहस करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। इससे उन्हें दार्शनिक दृष्टिकोण, अवलोकन, अमूर्तता, तर्क, कारण और खोज के साथ अपने ज्ञान को परिष्कृत करने में मदद मिलती थी। ये पूरी प्रक्रिया ‘सत्य की खोज’ के तौर पर सतत रूप से जारी रहती थी। इसी प्रक्रिया के माध्यम से ज्ञान के भंडार के रूप में समस्त धर्मग्रंथों का निर्माण हुआ।

बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के प्रारम्भ में, बंगाल के लगभग हर गाँव में एक गुरुकुल और एक मदरसा था। मदरसे मुस्लिम बच्चों के लिए थे जिन में  स्थानीय मौलवियों द्वारा इस्लामी शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुल आमतौर पर स्थानीय समृद्ध व्यक्तियों के परिसर में चलाए जाते थे जहाँ सभी वर्गों के बच्चे स्कूल जाते थे। इन गुरुकुलों में, एक स्थानीय पंडित शिक्षक होता था जो वेतनभोगी या अवैतनिक  सकता था। अवैतनिक शिक्षकों के  मामले में, पंडित शिक्षक के परिवार की सभी जरूरतों का ख्याल समस्त ग्रामीणों द्वारा सामूहिक रूप से रखा जाता था।

जब ईस्ट इंडिया कंपनी शासक बनी तो ब्रिटिश सरकार ने उस पर अपने शासित क्षेत्र में शिक्षा की जिम्मेदारी भी उसे सौंपी थी। बंगाल का पहला गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स भारतीय संस्कृति और भाषाओं के प्रति बहुत सम्मान का भाव रखता था। उसके विचार में भारत की अपनी एक विकसित सभ्यता और संस्कृति थी जिसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी। उनके संरक्षण में, कुछ प्राच्यवादी (ओरिएन्टलिस्ट) और भारतस्नेही  (इंडोफाइल्स) अंग्रेजों ने एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना करी और प्राचीन ग्रंथों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करना शुरू किया। उनका मानना ​​था कि भारत आने वाले कंपनी के अधिकारियों को स्थानीय भाषा के माध्यम से जनता से जुड़ना चाहिए और उन्होंने शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थानीय भाषा का उपयोग करने पर जोर दिया। बाद में, भारत में यूरोपीय प्रशासकों की बढ़ती संख्या के कारण उन्हें भारतीय भाषा और संस्कृति में प्रशिक्षित करने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई। उस समय तक ईसाई मिशनरियों को भारतियों का धर्मांतरण कराकर ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने की ब्रिटिश सरकार से अनुमति प्राप्त नहीं थी।

बाद में गवर्नर जनरल कॉर्नवालिस ने भारत में अंग्रेजी भाषा और यूरोपीय प्रणालियों को बढ़ावा देकर भारतीय समाज के  अंग्रेजीकरण का अभियान शुरू किया। फोर्ट विलियम कॉलेज में बंगाली, मराठी और संस्कृत के एक मिशनरी प्रोफेसर विलियम कैरी का मानना ​​था कि ईसाई धर्म के प्रचार की सफलता भारतीय शिक्षकों की शिक्षा और उनके प्रशिक्षण में निहित है। इस बीच, भारत में मिशनरियों ने इंग्लैंड में चर्च के माध्यम से ब्रिटिश सर्कार की नीति को प्रभावित किया। चार्टर अधिनियम 1813 ने ईसाई मिशनरियों को शिक्षा की जिम्मेदारी सौंपी, और उन्हें धर्मांतरण के माध्यम से ईसाई धर्म का प्रचार और प्रसार करने की अनुमति दी। मिशनरियों ने इस अवसर का लाभ उठाया और प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों के अनुवाद और व्याख्या के लिए राम राम बसु और राम मोहन रॉय जैसे देशी अनुवादकों को पुरस्कृत करते हुए प्रोत्साहित किया। जो लोग भारत धर्म, सभ्यता और संस्कृति विरोधी (इंडोफोब) मिशनरी रणनीति के साथ जुड़े, उन्हें उच्च वेतन, पदोन्नति और अन्य प्रोत्साहनों से पुरस्कृत किया गया। अंततः, नौकरशाही और सेना में भारतस्नेही (इंडोफाइल्स) को हाशिए पर धकेल दिया गया और भारतीयता विरोधी (इंडोफोब्स) मिशनरियों से प्रभावित सिविल सर्वेन्ट्स एक प्रमुख शक्ति बन गए।

अलेक्जेंडर डफ प्रेस्बिटेरियन असेंबली का एक ईसाई मिशनरी था। वह कठिन और साहसिक यात्रा की कठिनाइयों का सामना करते हुए अपनी पत्नी के साथ 1829 में भारत पहुँचे। आख़िरकार, वह बिना किसी सामान के कलकत्ता पहुंचा  और यहाँ उसने एक हिंदू मंदिर में आश्रय पाया। लेकिन बाद में उसने उसी हिंदू आस्था को बर्बाद करने का काम किया जिसने उसे भारत पहुंचने पर सबसे पहले आश्रय दिया था। उसके भारत आगमन और उनकी मिशनरी गतिविधियों का विवरण कई मिशनरी डाइजेस्ट में अच्छी तरह से उल्लेखित है। सन 1923 में प्रकाशित विलियम पैटन की ऐसी ही एक पुस्तक, ‘अलेक्जेंडर डफ, पायनियर ऑफ मिशनरी एजुकेशन’ में उनके जीवन और गतिविधियों को विस्तार से दर्शाया गया है, जिसे बैपटिस्ट बोर्ड ऑफ एजुकेशन, मिशनरी एजुकेशन विभाग न्यूयॉर्क ने अपने प्रकाशन ‘अलेक्जेंडर डफ, इंडियास एजुकेशनल पायनियर’ में प्रमाणित किया है। इस मिशनरी प्रकाशन में, पृष्ठ 11 पर स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वह हिंदू धर्म और आस्था को समाप्त करने के इरादे से भारत आया था। उसी पृष्ठ पर लिखा है, “डफ का मानना ​​था कि उसने हिंदू धर्म को कमजोर करने और अंत में उसे नष्ट करने का रास्ता पता है। जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा था, वह एक ऐसी विस्फोटक सुरंग तैयार करना चाहता था जो एक दिन हिंदू धर्म के आधार के नीचे ही फट जाए। इसके लिए उसने बुजुर्ग मिशनरी विलियम कैरी से मुलाकात की और अपनी योजना पर चर्चा की और अपनी योजना पर उसकी स्वीकृति प्राप्त कर ली।

अलेक्जेंडर डफ की योजना

उसने ईसाई शिक्षा का उपयोग करने की योजना बनाई, जिसे अंततः अंग्रेजी में उच्च शिक्षा तक ले जाया गया । इस प्रकार अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजी में गलत रूप से अनुवादित धर्मग्रंथों को आधार बना कर हिंदू धर्म पर हमला करने और ईसाई धर्म की महानता का प्रस्तुतिकरण करने की योजना बनी। इस योजना के क्रियान्वयन हेतु दो महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लेने थे, पहला उच्च शिक्षा को एक मिशनरी साधन के रूप में उपयोग करना और दूसरा, अंग्रेजी में उच्च शिक्षा प्रदान करना। मिशनरी शिक्षा विभाग, न्यूयॉर्क के उपरोक्त प्रकाशन में उसकी इसी  योजना को स्पष्ट रूप से समझाया गया है, उसका समर्थन और प्रशंसा करी गई है।

उपरोक्त योजना के तहत अलेक्जेंडर डफ ने राम मोहन राय की मदद से अपने अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की। इस स्कूल में, उसने स्कूल की स्थापना के 3 साल के भीतर ही सभ्रांत घरानों के 4 छात्रों कृष्ण मोहन बनर्जी, गोपीनाथ नंदी, महेश चंद्र घोष और आनंद चंद्र मजुमदार को ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया। ये सभी छात्र संपन्न परिवारों से थे जबकि पहले धर्म परिवर्तन करने वाले अधिकांश लोग अनाथ, जाति बहिष्कृत, गरीब, भिखारी या अपंग थे। इन सभी धर्म परिवर्तित करने वाले छात्रों ने अपने-अपने परिवारों, रिश्तेदारों और जातियों के सभी प्रकार के दबावों का जिद्दी तौर पर विरोध किया। अलेक्जेंडर डफ की इस सफलता ने ईसाई धर्म में धर्मान्तरण के लिए शिक्षा को एक हथियार के रूप में उपयोग करने की उसकी योजना ने अन्य मिशनरियों को आश्चर्यचकित कर दिया। चूंकि मुसलमान आम तौर पर अंग्रेजी शिक्षा, प्रौद्योगिकी और पश्चिमी ज्ञान से दूर रहते थे, इसलिए वे उसके जाल में नहीं फंसे।

बाद में, गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक के शिक्षा सम्बन्धी प्रस्ताव को प्रभावी बनाने के लिए इंग्लिश एजुकेशन एक्ट  1835 लागू किया गया। इस कानून ने संस्कृत और अरबी पर आधारित ग्रंथों के साथ स्थानीय माध्यमों में ओरिएण्टल  शिक्षा हेतु सरकारी वित्तीय सहायता को रोक दिया। इसका  मूल उद्देश्य केवल अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा को बढ़ावा देना था। मैकाले के मिनट्स ने भी उपरोक्त कानून के लिए अपना योगदान दिया। भारतीय दर्शन, संस्कृत, अरबी और प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों पर आधारित ज्ञान पद्धति मैकाले के मिनट की बलि चढ़ गई।

इंडियन एजुकेशन एक्ट 1835 के लागू होने के बाद, ओरिएन्टलऔर पारंपरिक भारतीय शिक्षा को दरकिनार करके भारतीय शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन किया गया। धीरे-धीरे, दर्शन शास्त्र और संस्कृत भाषा को बड़े प्रभावी ढंग से लगभग विलुप्त कर दिया गया, और यह सुनिश्चित हो गया कि भारतीय पूरी तरह से अपने प्राचीन ग्रंथों को जानने के लिए मूलतः मिशनरियों द्वारा नियतंत्रित अनुवादों पर निर्भर रहें। इन अनुवादों में फोर्ट विलियम कॉलेज में मिशनरी-प्रभावित अनुवादकों ने पहले से ही हिन्दू धर्म ग्रंथों की विकृत,और गलत व्याख्या की गई थीं और हिन्दू धर्म की विकृत छवि प्रस्तुत करते हुए उसके लिए ब्राह्मणों पर दोषारोपण किया था। उस समय भारत में कागज और छपाई उपलब्ध नहीं थी और सन 1870 तक कागज और छपाई दोनों तक भारतीयों की पहुंच नहीं थी क्योंकि इसे यूरोप से आयात किया जाना था और उनके पास वहां किसी भारतियों के अपने विश्वसनीय व्यावसायिक संबंधों का अभाव था।

सन 1857 के विद्रोह तक, ओरिएंटलिस्टों का प्रभाव सरकार में फीका पड़ गया था, और ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरशाही और सेना में मिशनरी-प्रभावित अधिकारियों का वर्चस्व था। 1857 के विद्रोह के बाद, भारतीयों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की ब्रिटिश नीति ने ईसाई मिशनरियों को भारतीयों के धर्म या धार्मिक प्रथाओं पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने के लिए प्रतिबंधित कर दिया। इस प्रकार, इन ईसाई मिशनरियों ने अपनी रणनीति बदल दी और विशेष रूप से हिंदुओं के बीच सामाजिक दरार पैदा करने के लिए पहले से अपने प्रभाव में आये हुए भारतियों को अपने एजेंडा को बढ़ने में प्रयोग करना शुरू कर दिया। ज्योतिराव फुले, ई.वी.आर. नायकर और बाद में इस खेल में अम्बेडकर आदि का बेहद चतुराई से उपयोग किया गया जिसके प्रभाव अब 150 से अधिक वर्षों के बाद भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हैं। इससे अलेक्जेंडर डफ की योजना सफल सिद्ध होती है कि जिसमें वह हिंदू धर्म को नष्ट करने के लिए एक बारूदी सुरंग लगाना चाहता था। दुर्भाग्य से अलेक्जेंडर डफ जैसी दुरात्मा को एक शिक्षाशास्त्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है। हमारी शिक्षा पद्धति में तथ्यों को छिपाये जाने की प्रवृत्ति के चलते ही यह संभव हो पाया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Related articles

Hindenburg Research, ‘Notorious’ Short-Seller that probed Adani Group, to shut down

Hindenburg Research founder Nate Anderson on Wednesday announced disbanding his US investment research firm. The company rattled the...

Focusing on border security, energy, and living costs, only 2 Genders, Emergency at Mexico Border: Executive Orders Trump Will Sign Soon

Donald Trump was sworn in for a historic second term as US president on Monday, capping his extraordinary...

As the World braces for Trump 2.0, here’s how People views his return

U.S. President-elect Donald Trump returns to the White House on Monday, and much of the world is watching...

“Deep State Actors” Hillary Clinton and George Soros receive Presidential Medal of Freedom

With two weeks left in his administration, President Joe Biden bestowed the highest American civilian honor to some...