पर्यावरण संरक्षण में आत्मनिर्भर भारत की बात करें तो हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना बरबस याद आ जाती है। दरअसल आत्मनिर्भरता हमें सुख व संतोष देने के साथ-साथ हमें सशक्त भी करती है। यदि हम दृढ़ संकल्प लें, तो भारत को आत्मनिर्भर भारत बनाने से कोई नहीं रोक सकता। इसी कड़ी में पर्यावरण संरक्षण में भारत को आत्मनिर्भर बनाना एक नई चुनौती है। लेकिन जैसे कि कहा गया है कि नथिंग इस इंपॉसिबल तथा आपदा में अवसर ढूंढने के मूल मंत्र को लेकर हम चलें तो अपने लक्ष्य को अवश्य ही पा लेंगे।
सर्वप्रथम हम पर्यावरण संरक्षण की चर्चा करते हैं। दरअसल “पर्यावरण संरक्षण” का तात्पर्य है कि ‘हम अपने चारों ओर के वातावरण को संरक्षित करें तथा उसे जीवन के अनुकूल बनाए रखें’। यह पर्यावरण हमें क्या नहीं देता ? जीवन जीने के लिए सभी आवश्यक पदार्थ एवं वस्तुएं हमें पर्यावरण से ही प्राप्त होती है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के संरक्षण को बहुत महत्त्व दिया गया है। यहाँ मानव जीवन को हमेशा मूर्त या अमूर्त रूप में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी, वृक्ष एवं पशु-पक्षी आदि के साहचर्य में ही देखा गया है। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिन्तन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है।
सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राज-चिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएँ खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मँगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि सौ पुत्रों से इतना सुख नहीं मिलता है, जितना आपके लगाए एक वृक्ष से मिलता है। पर्यावरण एवं वनों के महत्व को देखते हुए भगवान श्रीराम ने दंडक वन, श्री कृष्ण ने वृंदावन, पांडवों ने खांड वन और शौनकादि ऋषियों ने नैमिषारण्य वन बनाया था।
हमें अपने पुरखों से एक हरा भरा एवं स्वस्थ पर्यावरण प्राप्त हुआ था लेकिन मनुष्य ने अपनी लालच एवं महत्वाकांक्षाओं के चलते पर्यावरण का खूब दोहन किया है। इसी के चलते हम देखते हैं कि हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार वायु, जल एवं मृदा आज खतरे में हैं। सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में इन तीनों प्रकृति प्रदत्त उपहारों का संकट बढ़ता जा रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण न केवल महानगरों में ही बल्कि छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी शुद्ध प्राणवायु मिलना दूभर हो गया है, क्योंकि धरती के फेफड़े वन समाप्त होते जा रहे हैं। वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता दोनों ही घटती जा रही है। बड़े शहरों में तो वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि लोगों को श्वास सम्बन्धी बीमारियाँ आम बात हो गई है। विश्व में बढ़ते बंजर इलाके, फैलते रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त होते पेड़-पौधों और जीव जन्तु, प्रदूषणों से दूषित पानी, कस्बों एवं शहरों पर गहराती गन्दी हवा और हर वर्ष बढ़ते बाढ़ एवं सूखे के प्रकोप इस बात के साक्षी हैं कि हमने अपने धरती और अपने पर्यावरण की उचित देखभाल नहीं की।
दूषित हुए पर्यावरण को स्वस्थ बनाने के लिए भारत में पर्यावरण संरक्षण संबंधी कई जन-जागरूकता का आंदोलन चले। जिनमें प्रमुख हैं-
1. चिपको आंदोलन:-यह आंदोलन 1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश (वर्तमान में उत्तराखण्ड) सरकार द्वारा जंगलों को काटने का ठेका देने के विरोध मे एक गांधीवादी संस्था ‘दशौली ग्राम स्वराज मंडल’ ने चमोली जिले के गोपेश्वर में रेनी नामक ग्राम में प्रसिद्ध पर्यावरणविद्, सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में प्रारम्भ किया, जिसमें इस गाँव की महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन के तहत् महिलाएँ पेड़ों से चिपक कर पेड़ को काटने से रक्षा करती थी। यह आंदोलन भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं चर्चित पर्यावरण संबंधी आंदोलन रहा।
2. आप्पिको आंदोलन:-यह आंदोलन चिपको आंदोलन की तर्ज पर ही कर्नाटक के पाण्डुरंग हेगड़े के नेतृत्व में अगस्त 1993 में प्रारम्भ हुआ। इसके अतिरिक्त:-
(1) पश्चिमी घाट बचाओ आंदोलन (महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल),
(2) कर्नाटक आंदोलन (आदिवासियों के अधिकार के लिए),
(3) शान्त घाटी बचाओ आंदोलन (उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वनों को बचाना),
(4) कैगा अभियान (नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र के विरोध में),
(5) जल बचाओ, जीवन बचाओ (बंगाल से गुजरात तथा दक्षिण में कन्याकुमारी तक, मछली बचाओ),
(6) बेडथी आंदोलन (कर्नाटक की जल विद्युत योजना के विरोध में),
(7) टिहरी बाँध परियोजना (उत्तराखण्ड मे टिहरी बाँध के विरोध में),
(8) नर्मदा बचाओ आंदोलन,(9) दून घाटी का खनन विरोध,
(10) मिट्टी बचाओ अभियान,
(11) यूरिया संयंत्र का विरोध (मुम्बई से 25 किलोमीटर दूर वैशड़ में),
(12) इन्द्रावती नदी पर बाँध का विरोध (मुम्बई के इन्द्रावती नदी पर गोपाल पट्टनम एवं इचामपतल्ली बाँध का आदिवासियों द्वारा विरोध),
(13) गंध मर्दन बॉक्साइट विरोध संबंधित क्षेत्रों मे संरक्षण के लिए किया जा रहा है पर्यावरण हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है।
जिस प्रकार राष्ट्रीय वन-नीति के अनुसार सन्तुलन बनाए रखने हेतु 33 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिये समर्पित था, जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भाँति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का सन्तुलन बना रहे। अब इससे होने वाले संकटों का प्रभाव बिना किसी भेदभाव के समस्त विश्व, वनस्पति जगत और प्राणी मात्र पर समान रूप से पड़ रहा है।
पर्यावरण संरक्षण के उपायों की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिये आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण की चेतना की सार्थकता तभी हो सकती है जब हम अपनी नदियाँ, पर्वत, पेड़, पशु-पक्षी, प्राणवायु और हमारी धरती को बचा सकें। इसके लिये सामान्य जन को अपने आस-पास हवा-पानी, वनस्पति जगत और प्रकृति उन्मुख जीवन के क्रिया-कलापों जैसे पर्यावरणीय मुद्दों से परिचित कराया जाये। युवा पीढ़ी में पर्यावरण की बेहतर समझ के लिये स्कूली शिक्षा में जरूरी परिवर्तन करने होंगे। पर्यावरण मित्र माध्यम से सभी विषय पढ़ाने होंगे, जिससे प्रत्येक विद्यार्थी अपने परिवेश को बेहतर ढंग से समझ सके। विकास की नीतियों को लागू करते समय पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव पर भी समुचित ध्यान देना होगा।
प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए पर्यावरण संरक्षण पर जोरे देने की आवश्यकता है । आज आवश्यकता इस बात की भी है कि मनुष्य के मूलभूत अधिकारों में जीवन के लिये एक स्वच्छ एवं सुरक्षित पर्यावरण को भी शामिल किया जाये। इसके लिये सघन एवं प्रेरणादायक लोक-जागरण अभियान भी शुरू करने होंगे। आज हमें यह स्वीकारना होगा कि हरा-भरा पर्यावरण, मानव जीवन की प्रतीकात्मक शक्ति है और इसमें समय के साथ-साथ हो रही कमी से हमारी वास्तविक ऊर्जा में भी कमी आई है। वैज्ञानिकों का मत है कि पूरे विश्व में पर्यावरण रक्षा की सार्थक पहल ही पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने की दिशा में किये जाने वाले प्रयासों में गति ला सकती है।
पर्यावरण हम सभी को सतर्क कर रहा है कि अगर हमने पर्यावरण का सोच-समझकर इस्तेमाल नहीं किया तो हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा। पर्यावरण से जुड़े कुछ तथ्य हमें चेतावनी दे रहे हैं- जैसे सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की रिपोर्ट की मानें तो भारत की गंगा और यमुना नदियों को दुनिया की 10 सबसे प्रदूषित नदियों में शुमार किया गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में अकेले 13 शहर सिर्फ भारत में हैं। अगर एक टन कागज को रिसाइकल किया जाए तो 20 पेड़ों और 7000 गेलन पानी को बचाया जा सकता है। यही नहीं इससे जो बिजली बचेगी उससे 6 महीने तक घर को रोशन किया जा सकता है।
ज्ञातव्य है कि एक फ्रांसीसी सार्वजनिक अनुसंधान संस्थान ने यह दावा किया है कि हाल ही में पूरे विश्व को हिला देने वाली ‘कोविड-19’ जैसी महामारी मानव गतिविधियों के कारण उत्पन्न होती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार, पर्यावरणीय परिवर्तन या पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव के कारण कोविड-19 जैसे ज़ूनोसिस रोग उत्पन्न हुए हैं। पिछले 50 वर्षों के दौरान प्रकृति के परिवर्तन की दर मानव इतिहास में अभूतपूर्व है तथा प्रकृति के परिवर्तन का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण भूमि उपयोगिता में परिवर्तन है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही अत्यधिक मात्रा में प्राकृतिक संसाधन का दोहन करना, अत्यधिक पैदावार हेतु कृषि में खाद का उपयोग करना, मानव द्वारा जंगलों एवं अन्य स्थानों पर अतिक्रमण करना, इत्यादि पारिस्थितिक तंत्र में बदलाव के कारण हैं।
घर-परिवार ही सही अर्थों में शिक्षण की प्रथम पाठशाला है और यह बात पर्यावरण शिक्षण पर भी लागू होती है। परिवार के बड़े सदस्य अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से ये सीख बच्चों को दे सकते हैं, जैसे कि-
- ‘यूज एंड थ्रो’ की दुनिया को छोड़ ‘पुनः सहेजने’ वाली सभ्यता को अपनाया जाये।
- अपने भवन में चाहे व्यक्तिगत हो या सरकारी कार्यालय हो, वर्षा जल-संचयन प्रणाली प्रयोग में लाएँ।
- जैविक-खाद्य या बायो फर्टिलाइजर अपनाएँ।
- पेड़-पौधे लगाएँ- अपने घर, फ्लैट या सोसाइटी में हर साल एक पौधा अवश्य लगाएँ और उसकी देखभाल करके उसे एक पूर्ण वृक्ष बनाएँ ताकि वह विषैली गैसों को सोखने में मदद कर सके।
- अपने आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखें। सड़क पर कूड़ा मत फेंके।
- नदी, तालाब जैसे जलस्रोतों के पास कूड़ा मत डालें। यह कूड़ा नदी में जाकर पानी को गन्दा करता है।
- कपड़े के थैले इस्तेमाल करें, पॉलिथिन व प्लास्टिक को ‘ना’ कहें।
- छात्र उत्तरपुस्तिका, रजिस्टर या कॉपी के खाली पन्नों को व्यर्थ न फेंके बल्कि उन्हें कच्चे कार्य में उपयोग करें। पेपर दोनों तरफ इस्तेमाल करें।
- जितना खाएँ, उतना ही लें।
- दिन में सूरज की रोशनी से काम चलाएँ।
- काम नहीं लिये जाने की स्थिति में बिजली से चलने वाले उपकरणों के स्विच बन्द रखें, सी.एफ.एल. का उपयोग कर ऊर्जा बचाएँ।
- वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा कम करने के लिये सौर-ऊर्जा का अधिकाधिक इस्तेमाल करें, सोलर-कुकर का इस्तेमाल बढ़ाएँ तथा स्वच्छ ईंधन का प्रयोग करें।
- विशिष्ट अवसरों पर एक पौधा अनिवार्यतः उपहार स्वरूप दें।
- कूड़ा करकट, सूखे पत्ते, फसलों के अवशेष और अपशिष्ट न जलाएँ। इससे पृथ्वी के अन्दर रहने वाले जीव मर जाते हैं और वायु प्रदूषण स्तर में वृद्धि होती है।
- तीन आर- रिसाइकिल, रिड्यूस और रियूज का हमेशा ध्यान रखें।
उल्लेखनीय है कि कोविड-19 रूपी महामारी के कारण हुए लॉकडाउन से वायु प्रदूषण में काफी हद तक कमी आई है और हमारी आबोहवा साफ-सुथरी हुई है। यह तथ्य इस ओर इशारा करता है कि यदि हम पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान नहीं देंगे, तो प्रकृति स्वयं उसका संज्ञान लेकर किसी न किसी आपदा, जैसे कोविड-19, के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होगी एवं अपने को स्वच्छ एवं निर्मल कर लेगी। इसलिए हम सभी को आज के परिपेक्ष्य में पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को जान लेना आवश्यक है।
पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से ही अभी हाल में ही संपन्न हुए वन महोत्सव में संपूर्ण उत्तर प्रदेश में एक ही दिन 5 जुलाई को 25 करोड़ से अधिक वृक्षारोपण सफलतापूर्वक संपन्न हुआ है। वन महोत्सव सप्ताह के अंतर्गत हर जनपद में विशिष्ट वाटिका वृक्षारोपण के अंतर्गत स्मृति वाटिका, पंचवटी, नवग्रह वाटिका ,धनवंतरी वाटिका, नक्षत्र वाटिका, हरिशंकरी का रोपण भी किया गया। वृक्षारोपण अभियान पर्यावरण संरक्षण, कुपोषण निवारण, जैव विविधता संरक्षण , औषधीय पौधों, चारा प्रजाति के पौधों, इमारती प्रजाति के वृक्षों तथा जीवामृत के उपयोग तथा गंगा व सहायक नदियों के किनारे वृक्षारोपण पर केंद्रित रहा। पर्यावरण संरक्षण के लिए पर्यावरण महत्व की प्रजातियां बरगद ,पीपल, पाकड़ व अन्य फाइकस प्रजाति के पौधों का रोपण किया गया। फलदार वृक्षों की बात करें तो उसमें आम, महुआ, नीम, आंवला, जामुन आदि का रोपण किया गया। इसके अलावा प्रदेश में बढ़ती पेपर की डिमांड को पूरा करने के लिए पॉपलर, सागौन शीशम आदि का भी वृक्षारोपण किया गया।
कुपोषण निवारण के लिए सहजन वृक्षों का रोपण किया गया। दरअसल यह एक अत्यधिक उपयोगी वृक्ष है जोकि महिलाओं और बच्चों में होने वाले कैल्शियम, आयरन और विटामिन सी की कमी से होने वाले रोगों को दूर करने में सहायक है। इसके अतिरिक्त जैव विविधता के परिप्रक्ष्य में कुल 108 से अधिक किस्म की पौधों का रोपण किया गया। जहां तक जीवामृत का संबंध है ,यह गोमूत्र, खनिज, गोबर से बनाया जाता है तथा इसका उपयोग पौधों की नर्सरी में पौधों की वृद्धि के लिए किया जाता है। पहले पौधों को उगाने में केमिकल फर्टिलाइजर्स के उपयोग किया जाता था जो कि पर्यावरण के लिए अत्यंत नुकसानदायक है जबकि जीवामृत जैविक पदार्थों से बनाया जाता है जोकि पर्यावरण को किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाता। इस वृक्षारोपण की यह खास बात रही कि वृक्षारोपण वाले सभी स्थानों की जियो टैगिंग भी कराई गई जिससे यह ज्ञात हो सके कि लगाए गए पौधों का जीवित प्रतिशत कितना रहेगा। कोरोना के समय में पौधारोपण के साथ सोशल डिस्टेंसिंग का भी पालन कराया गया।
दरअसल वन या वृक्ष देश की प्रगति के द्योतक हैं। वनों का राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है। वनों एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीणों एवं आदिवासियों की आजीविका वनों तथा वनोपज पर आधारित है। वृक्षारोपण के माध्यम से ग्रामीणों कृष को श्रमिकों वह समाज के निर्बल व निर्धन वर्ग की वन आधारित आवश्यकताएं पूर्ण करने हेतु प्रत्येक रिक्त भूमि पर अधिक से अधिक वृक्षारोपण करके एवं रोपित पौधों की सुरक्षा एवं देखरेख भी करना अत्यंत आवश्यक है।
भारत के किसानों की आय उनके परिश्रम के अनुरूप हो इसके लिए कृषि वानिकी या एग्रोफोरेस्ट्री पर बहुत जोर दिया जा रहा है। माननीय प्रधानमंत्री जी के आवाहन पर ‘हर मेढ़ पर पेड़’ को फलीभूत करने के लिए कृषि वानिकी एवं राष्ट्रीय बांस मिशन के कारण किसानों की आय में वृद्धि हुई है। पहले की स्थिति की तुलना में जब सिर्फ इमारती लकड़ी के पेड़ ही ज्यादा लगाए जाते थे, अब कई उद्योग जैसे मेडिकल अरोमैटिक प्लांट्स, बायोफ्यूल्स, रेशम ,लाख आदि उभर कर आए हैं, जिन्हें ट्री बेस्ड कच्चे माल की आवश्यकता है। इससे किसानों को जल्दी आए मिलना शुरू हो जाती है। साथ ही देश में आयात किए जाने वाले फीडस्टॉक जिसमें प्लाईवुड पेपर मिल आदि की आवश्यकताएं भी शामिल है, में भारी कमी आ सकती है। इस प्रकार वृक्षारोपण एवं कृषि वानिकी मेड इन इंडिया एवं आत्मनिर्भर भारत के उद्देश्यों की पूर्ति में अभूतपूर्व योगदान दे सकते हैं।
Author – डॉ दीपक कोहली, संयुक्त सचिव, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, उत्तर प्रदेश शासन
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