अफजल खाँ का वध करने के बाद आदिलशाह द्वितीय ने सिद्दी जौहर के नेतृत्व में शिवाजी को समाप्त करने के उद्देश्य से 20 हजार अश्वदल, 35 हजार पैदल सैनिक, अनेक हाथियों, तोपों आदि के साथ बहुत बड़ा सैन्य बल देकर भेजा, पर इससे भी वह निश्चिन्त नहीं हुआ!
उसने औरंगजेब के पास एक पत्र भेजा, जिसमें उसने लिखा, “पूरे इस्लामी साम्राज्य को ध्वस्त कर शिवाजी दक्षिण में एक हिन्दू स्वराज्य की स्थापना करना चाहता है! इस्लाम के लिए शिवाजी अब बड़ा ही खतरनाक साबित होता जा रहा है. अत: बादशाह औरंगजेब एक अनुभवी सेनापति शाइस्ता खाँ के नेतृत्व में शक्तिशाली सेना शिवाजी को तुरंत समाप्त करने लिए भेज दें नहीं तो पूरा इस्लाम खतरे में पड़ जाएगा!”
औरंगजेब पहले से ही शिवाजी के अदम्य साहस के कारनामे सुन-सुनकर अत्यंत त्रस्त था!आदिलशाह का पत्र मिलने के बाद उसने शिवाजी को समाप्त करने के मन्तव्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को एक विशाल सेना लेकर शिवाजी पर आक्रमण करने का आदेश दिया!
इस सेना में करीबन 77,000 घुड़सवार, 30,000 पैदल सैनिक तथा बहुत बड़ी मात्रा में गोला-बारूद, तोपखाने आदि थे!
3 मार्च,1660 ई. को शाइस्ता खान ने महाराष्ट्र में प्रवेश किया! जनता में त्राहि-त्राहि मच गई और अधिकांश लोग गांव छोड़कर जंगलों की ओर भागने लगे! शाइस्ता खाँ फ़ौज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया!
शाइस्ता खाँ ने 9 मई 1660 में पुणे स्थित शिवाजी के लाल महल में अपना डेरा डाला था! लाल महल के आसपास खान के सरदारों ने डेरे जमाये! खान अनुभवी मुगल सरदार था. 1660 से 1663 तक तीन वर्ष पुणे में रहा पर उसे कोई सफलता न मिली!शिवाजी उस समय राजगढ़ में थे!
पुणे के जिस लालमहल में शिवाजी ने पूरा बचपन व किशोर अवस्था बितायी थी, जहां प्रत्येक सुबह जीजाबाई के मधुर स्वर में देव-वंदना गूंजती थी, वहां आज शाइस्ता खान और उसके सरदारों के लिए गोमांस व नशेबाजों का दस्तरखान बिछा हुआ था! नाच-गाना व नशेबाजों का अश्लील हो-हुल्लड़ मचा हुआ था! सैनिक शिविरों में भी मौज-मस्ती, शराब, जुआ आदि चल रहा था!
शाइस्ता खाँ ने चारों तरफ सख्त पहरा भी बिठा रखा था, ताकि मराठे किसी भी तरफ से लालमहल या सेना-शिविरों में न घुस पायें!
शिवाजी के अधीन राजगढ़ दुर्ग में कुल सेना पंद्रह हजार से अधिक नहीं थी! मुगल व आदिलशाही की सम्मिलित लाखों की सेना और कहां शिवाजी के मुट्ठी भर स्वराज्य प्रेमी मराठे!
इसी कारण से शिवाजी की ओर से कहीं कोई प्रत्यक्ष हलचल नहीं की थी! मुगलों के शासन की नींव शाइस्ता खाँ को कैसे भगाया जाए, इस विषय में परामर्श करने के लिए शिवाजी ने रायगढ़ में माता जीजाबाई तथा विश्वस्त सरदारों, मंत्रियों व गुप्तचरों से मंत्रणा की और बंदूक-तोपों से सुसज्जित 1 लाख से अधिक सेना से घिरे पुणे के लालमहल में गुपचुप प्रवेश कर शत्रु को खत्म करने के लिए एक अत्यंत दुस्साहसिक योजना तैयार की, जिसके बारे में अन्य किसी को भनक न लगी!
योजना क्रियान्वयन के लिए 6 अप्रैल 1663 (रामनवमी का पूर्व दिवस, चैत्र शुक्ल अष्टमी) को चुना गया!
शिवाजी महाराज की गुप्तचर-व्यवस्था अत्यंत दक्ष व विस्तृत थी! इसका मुख्य दायित्व कुशल-बुद्धि बहिर्जी नाइक पर था! उन्हीं की सूचनाओं के आधार पर शिवाजी ने ऐसी साहसपूर्ण योजना बनाई थी! अभियान के लिए इस दिन को चुनने का एक मुख्य कारण यह भी था कि, वह महीना रमजान का था और दिन भर रोजा रखने के बाद मुगल सेना सूर्य अस्त होने के बाद स्वाभाविक रूप से भर पेट भोजन खा-पीकर गहरी नींद में सो जाती थी! सिर्फ पहरेदार जागते थे!
6 अप्रैल 1663 ….पुणे में सूर्यास्त होने वाला था!
महाराज ने उसी समय मोरोपंत पिंगले व नेताजी पालकर को अभियान के शुभारंभ का आदेश दिया! तुरत-फुरत अभियान की तैयारियां शुरू हो गई! सबसे पहले 2,000 वीर मराठा सैनिक पद्मावती पहाड़ के नीचे आकर खड़े हो गये!
माता जीजाबाई को प्रणाम कर और देवी भवानी के दर्शन कर शिवाजी ने भी लालमहल की ओर प्रस्थान किया! उन्होंने चुने हुए 400 वीर सैनिकों को साथ लिया तथा बाकी सेना को दो टुकड़ियों में बांट दिया जिसका नेतृत्व दो प्रधान सेनापतियों ने संभाला! तत्पश्चात् सब लोग सेना के साथ आगे बढ़े!
राजे अपने मराठे वीरों को लेकर सहज भाव से लालमहल की ओर बढ़ चले! इस गुट ने बारातियों का स्वांग रचा था! वह विवाह की शोभायात्रा लेकर अंदर पहुंचा! शाम के बाद घोड़े पर सवार होकर सुनहरे रंग का शाल व फूल-माला के सेहरे से मुंह ढका जवान ‘वर’ और उसके पीछे बाजे-गाजे के साथ बराती! सभी ठाट-बाट से हंसी-मजाक करते विवाह की शोभायात्रा का अभिनय करते हुए शहर में घुसे!
राजे स्वयं ढोल बजाने वाले के वेश में थे!
शिवाजी के बचपन के मित्र चिमनाजी अपनी टुकड़ी के साथ नगर की ओर बढ़े! थोड़ा पीछे चिमनाजी के भाई बाबाजी देशपांडे की टुकड़ी भी चली! राजे की सेना को देखकर लगता था मानो भोले-भाले देहाती लोग हों!
शिविर के पास पहुंचते ही पहरेदारों ने उन्हें पूछा, “तुम लोग कौन हो? कहां से आए हो? कहां जा रहे हो?”
चिमनाजी ने उनसे जवाब दिया, “हम मुगल शिविर के ही लोग हैं! रात को छावनी के बाहर गश्त लगाना हमारे जिम्मे है! काम खत्म कर लौट रहे हैं! तुम लोगों का रोजा तो खत्म हो गया है, लेकिन हम लोग बहुत थके हुए हैं! अब खेमे में जाकर, खा-पीकर सो जाएंगे!”
बात ऐसे सीधे-सादे ढंग से कही इस बात पर पहरेदारों ने सहज ही विश्वास कर लिया! दरअसल इतने विशाल शिविर में किसे, किस काम से भेजा गया है, इसका ठीक-ठीक पता करना इन पहरेदारों के लिए भी मुश्किल था!फिर पहरेदारों ने यह भी सोचा कि ये लोग जब अन्य पहरेदारों को लांघ कर इतनी दूर आ गए हैं, तब अवश्य ही पहले की चौकियों में इनसे पूछताछ की गई होगी!
राजे की सेना के बहुत से लोग मुगल शिविर के घोड़ों, हाथियों तथा अन्य मवेशियों के लिए घास लाने वाले घसियारे बनकर पुणे शहर में घुसे थे!
महाराज तथा अन्य गुट जैसे-तैसे लाल महल की रसोईघर तक पहुंचे! रसोईघर में बावर्ची, नौकर व भिश्तियों के जाने-आने के लिए पीछे एक छोटा दरवाजा था, जो ज्यादा मजबूत नहीं था! साथियों को लेकर राजे अपने जाने-पहचाने रास्ते से अंधेरे में चुपचाप रसोईघर में घुसे, जहां बर्तन मांजने वालों की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं! वहीं कुछ लोग सवेरे का भोजन पकाने की व्यवस्था कर रहे थे! बाकी लोग रसोईघर में खाना-पीना समाप्त कर आराम से सो रहे थे!
लालमहल के रसोईघर से आगे जनानखाने के भीतर जाने का एक दरवाजा था! पुरुष रसोइयों को जनानखाने से अलग करने के लिए उस दरवाजे को ईंटों से बंद कर दिया गया था! उसे तोड़कर घुसते समय आवाज होना स्वाभाविक था!
उस आवाज को सुनते ही रसोईघर में काम कर रहे लोग शोर मचाते, इसलिए मराठा सिपाहियों ने वहां सोते-जागते सभी को खत्म कर दिया, जिससे उन्हें चिल्लाने का अवसर ही न मिले! फिर ईंट की दीवार तोड़नी शुरू की! थोड़ी कोशिश करने पर दीवार टूट गई, परंतु दरवाजा भीतर से बंद था! उसे तोड़ने के लिए हथौड़ा चलाना पड़ा! दरवाजे के दूसरी ओर कोई नौकर सो रहा था!आवाज सुनते ही वह जाग गया और शाइस्ता खाँ को खबर देने के लिए दौड़ा!
दरवाजा टूटते ही पहले चिमनाजी और उनके पीछे महाराज सेना सहित शाइस्ता खाँ के महल में घुस गए और चारों तरफ जितने भी पहरेदार थे, उन्हें खत्म कर दिया!
हाहाकार मच गया! शाइस्ता खाँ उस जनानखाने में सो रहा था! शाइस्ता खाँ की एक नौकरानी की नींद खुल गई!वह दौड़कर खान के कमरे में पहुंची!उसने शाइस्ता खाँ को नींद से जगाया! वह जल्दी से अपने बिस्तर से उठकर भागा! उसी समय एक होशियार नौकरानी ने सारी बत्तियां बुझा दीं!अन्य दासी-बेगमों ने जल्दी से शाइस्ता खाँ को एक कोने में भारी पर्दे की ओट में छिपा दिया!
महाराज खान को ही ढूंढ रहे थे!उन्होंने अपनी तलवार से भारी पर्दे को चीरा! पर्दा चीरते ही वह मिल गया! राजे ने अंधेरे में अंदाज से उस पर तलवार चला दी! भीषण चीख सुनकर महाराज को लगा कि शाइस्ता खाँ मर गया!
लेकिन वह मरा नहीं था, उसके दाहिने हाथ की अंगुलियां कटकर जमीन पर गिर पड़ी थीं! खुन बहता हाथ लेकर वह जनानखाने की खिड़की से कूद कर बेगमों के कमरे में जा कर छिप गया!
इतने कोहराम से लालमहल के बाहर काफी संख्या में मुगल सिपाही इकट्ठे हो गए थे! दुश्मन ने हमला किया है, यह खबर फैलते ही “कहां है दुश्मन? किधर गया?” की चिल्लाहट मच गई!
भाग-दौड़ के बीच राजे की सेना ने भी “दुश्मन-दुश्मन”, “पकड़ो-पकड़ो” कहकर चिल्लाना शुरू किया! उधर जोर-जोर से ढोल-नगाड़ा बजने लगे! किसी ने लालमहल का मुख्य दरवाजा खोल दिया था और मुगल सेना अंदर घुसकर दुश्मन को ढूंढने में लगी थी! मुगलों की चिल्लाहट में शामिल होकर शिवाजी अपनी सेना के साथ अंधेरे का लाभ उठाते हुए लालमहल के बाहर निकल गये!
काफी देर के बाद मुगल सेना को समझ में आया कि शिवाजी अपनी सेना के साथ मुगल शिविर से बाहर चले गये! मुगल सेना की एक टुकड़ी मराठों को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ी!
बहुत दूर से मशालें लिए मराठा सेना को भागते देखकर मुगल सेना शिवाजी को पकड़ने उसी दिशा में दौड़ पड़ी! लेकिन मुगलों ने वहां पहुंचकर देखा कि अनेक बैलों के सींगों पर मशालें बांध दी गई थीं और वे बैल ही डर के मारे इधर-उधर भाग रहे थे!
शिवाजी को पकड़ने मुगल सेना आयेगी, यह मराठों को पहले ही आभास था, इसी कारण बैलों के सींगों पर मशालों को जलाकर उनको जोर से उल्टी दिशा में भगा दिया गया था. काफी देर तक मुगल सेना बैलों में उलजी रही! शिवाजी को भला-बुरा कहते हुए शिविर में लौट आई!
और उसी बीच शिवाजी महाराज भी अपनी सेना के साथ सिंहगढ़ पहुंच गए!
यह थी भारत के इतिहास की पहली सर्जिकल स्ट्राइक और इसकी योजना बनाने और कार्यान्वित करने वाले उस प्रतापी राजा की उम्र उस समय मात्र 33 साल थी!
एक लाख से भी अधिक संख्या वाली विशाल मुगल सेना के शिविर में गिनती भर मराठा सैनिक लेकर खुद शाइस्ता खाँ पर आक्रमण करने जैसा अपूर्व शौर्य दिखाकर शिवाजी महाराज ने शाइस्ता खाँ के बहादुरी के घमंड को चकनाचूर कर डाला!
शाइस्ता खाँ की तीन अंगुलियां कट गईं! उसका पुत्र फत्ते खान, एक दामाद, एक सेनापति और चालीस महत्वपूर्ण पदाधिकारी मारे गए!
शिवाजी राजे के न चाहते हुए भी अंधेरे में तलवार चलाने के कारण उसकी दो बगमें भी मारी गईं! राजे के कुल छह सैनिक मारे गए और चालीस घायल हुए!
अंगुली-विहीन शाइस्ता खाँ की हालत पूंछ-विहीन सियार के समान अत्यंत शर्मनाक हो गई! औरंगजेब क्या, अपने सरदारों व सेनाओं को मुंह दिखाना भी उसके लिए कठिन हो गया! उसने सोचा, शिवाजी के हाथों मिली इस पराजय का कलंक जीवनभर साथ लेकर चलना होगा! उसने पुणे में जसवंत सिंह के अधीन कुछ सेना रखकर तीसरे दिन ही विशाल शिविर उठा लिया और अत्यंत अपमानित होकर पुणे छोड़कर वापस लौट गया!
हालाँकि यह आक्रमण बड़ा नहीं था, पर इसने मुगल सरदारों की प्रतिष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए थे!
शाइस्ता खाँ की पराजय के कारण स्वराज्य के सभी स्थानों में अगली सुबह रामनवमी खूब धमधाम के साथ मनायी गयी!
मुगल सत्ता को इस करारे जवाब के पीछे शिवाजी राजे के तानाजी मालुसरे, मोरोपन्त पिंगले, बाबाजी देशपाण्डे, चिमनाजी देशपांडे जैसे शूरवीर सरदार थे और आक्रमण के दिन के चयन व योजना बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका गुप्तचर बहिर्जी नाइक थी!
शाइस्ता खाँ पर लाल महल में शिवाजी का आक्रमण अत्यंत सूझ-बूझ और साहसभरी की योजना का परिणाम था! यह आक्रमण महाराज को एक स्वाभिमानी वीर योद्धा व दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित करता है!
इसके बाद महाराज फौरन राजगढ़ के लिए रवाना हुए, जहाँ माँ जीजा बाई अपने लाख आशीर्वादों के साथ उनका इंतज़ार कर रही थीं! माँ का एक और आशीर्वाद पुणे में सफल हुआ था! शिवा मौत के मुंह से बाहर आ गया था!
स्वराज्य की ओर बुरी नजर से देखने की कीमत शाइस्ता खान से वसूल की गई थी!
तीन साल तक लाल महल में कब्जा जमाए रखने के बदले शाइस्ता खान को अपनी तीन उंगलियां गंवानी पड़ी!
किसी और मुगल सरदार की इतनी बुरी तरह से पराजय हुई होती तो औरंगजेब उसका सर कटवा लेता, लेकिन शाइस्ता खान उसका मामा था, इसलिए उसने उसकी जान बख़्श दी और बंगाल भेज दिया!
कुल मिलाकर खान फिर कभी मराठा धरती पर वापस नहीं लौटा!
प्रख्यात इतिहासकार सर जादुनाथ सरकार कहते है कि, “इस आक्रमण में जो साहस और चतुराई मराठा वीर ने दिखाई उसके परिणामस्वरूप शिवाजी महाराज का सम्मान अत्याधिक बढ़ गया! उसके बारे में यह प्रसिद्ध हो गया कि वह शैतान का अवतार है जो कहीं भी पहुँच सकता है और कोई भी कार्य उसके लिए असम्भव नहीं है!”
यह पहला मौका नहीं था! सिर्फ बीते तीन सालों के दरम्यान शाइस्ता खान और बीजापुर के आदिलशाह की अक्ल कई बार ठिकाने लगाई जा चुकी थी!
तो यह थी कहानी इस देश के इतिहास की पहली सर्जिकल स्ट्राइक की!