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छत्रपति शिवाजी महाराज की वीर गाथा , अफजल खान वध।

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अफजल वध

“क्या इस दरबार में कोई ऐसा है जो उस काफिर शिवाजी को नेस्तनाबूत करके इस बीजापुरी सल्तनत को महफूज कर सके?”

बीजापुर के दिवंगत सुलतान की बड़ी बेगम की आवाज भरे दरबार में गूंजी!

यह आवाज सबके कानों में पड़ी,पर किसी की हिम्मत न हुई कि वो अपने को आग में कूदने के लिए प्रस्तुत कर सके! कारण, उड़ते उड़ते ख़बरें सब जागीरदारों, मनसबदारों और सूबेदारों तक पहुँच ही चुकी थी कि वह काफ़िर ‘पहाड़ी चूहा’ आग है और जो आग में कूदा, वो गया!

यह वही आदिलशाही थी जो वियजनगर साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर खड़े छोटे हिन्दू राज्यों को निगल गई थी तथा जिसने शिवाजी राजे के पिता शाहाजी को चार साल तक अपने बंदीगृह में रखा था!

ऐसे में सामने आया बड़ी बेगम का बहनोई! क्रूरता का पर्याय! कई युद्धों में बीजापुर को विजय दिला चुका सेनानायक, बलिष्ठ पठान अफ़ज़ल खान!

खुले दरबार में मुक्तकंठ से आत्मप्रशंसा करते हुए उसने कहा–वह उस कम्बख्त हिन्दू लुटेरे को अपने घोड़े से नीचे उतरे बिना ही पकड़ लेगा, और उस ‘चूहे’ को पिंजरे में बंद करके बीजापुर लाएगा ताकि जनता का मनोरंजन हो सके!

बड़ी बेगम की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा और दरबार को ऐसा लगा कि बस अब तो उसे ‘चूहे’ से मुक्ति मिली ही मिली!

अफ़ज़ल खान तुरंत अपनी मुहिम की तैयारियों में लग गया!

उसके दुर्भाग्य पर चिंतन करते हुए एक मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा है–“मौत का फरिश्ता उसकी गर्दन पकड़ उसे बर्बादी की तरफ ले चला!”

मराठा जनश्रुतियों के अनुसार उसके साथ इतने अपशकुन हुए, ईतनी अजीब अजीब बातें हुईं कि स्वयं अफ़ज़ल खान भी भयभीत हो गया और उसे अपने सही-सलामत वापस लौटने पर संदेह होने लगा!

ऐसे में ये सोचकर कि उसके बाद उसके हरम की औरतें किसी दूसरे पुरुष के साथ जाएँ, उसने आदेश निकाला कि हरम की सभी चौंसठ औरतों को जल में डुबाकर मार दिया जाए! 63 ने मौन रहकर मरना ही उचित समझा, पर एक ने भागने की चेष्टा की और उसे तलवार से काट डाला गया!

आज भी बीजापुर में ये कब्रें बनी हैं, 63 एक साथ और 64वीं कुछ दूरी पर, जो उस नरपिशाच की क्रूरता की कहानी कह रही हैं!

फिर अफ़ज़ल खान निकला शिवाजी को पकड़ने के लिए और उसने वो सारे कुकृत्य करने शुरू कर दिए जो हिन्दू प्रदेशों में करना मुस्लिम बादशाहों का शगल रहा था!

मंदिर तोड़े जाने लगे, मूर्तियां पददलित की जाने लगीं, गौवंश का वध कर उस रक्त को गृभगृहों में छिड़का जाने लगा, हिन्दुओं का नृशंस कत्ल ए आम होने लगा, हिन्दू ललनाओं का शील भंग किया जाने लगा!

राजे तक सब समाचार पहुँच रहे थे, परन्तु वे ये भी समझ रहे थे कि यदि उत्तेजित होकर वो खुले मैदान दो दो हाथ करने पहुँच गए तो मराठों को काल के गाल से कोई नहीं बचा पायेगा क्योंकि ना तो बड़ी सेना है, न अनुभवी सेनापति, ना खुले में युद्ध का अनुभव है और न किसी अन्य शक्ति से सहायता की आशा!

ऐसे में अप्रत्याशित रूप से अफ़ज़ल खान का संधि का संदेश आ पहुँचा जो अत्यंत सहज शर्तों पर संधि के लिए तैयार था!
शिवाजी को अत्यंत विस्मय हुआ और वास्तविक मंतव्य जानने के लिए उन्होंने अफ़ज़ल खान के दूतों में से एक ब्राह्मण दूत को देश-धर्म पर अफज़ल खान द्वारा किये गए अत्याचारों को याद कराते हुए उसे भावुक कर ये भेद जान लिया कि संधि तो बहाना है, मकसद शिवाजी महाराज को बुलाकर निपटाना है!

फिर शिवाजी महाराज ने कूटनीति का वो दाँव खेला जिसकी इतिहास में सानी मिलना मुश्किल है!

अफ़ज़ल खान जैसे क्रूर, सयाने और घाघ सेनानायक को वो ये विश्वास दिलवाने में सफल रहे कि उसके डर से शिवाजी की हालत पस्त है, वो काँप रहे हैं और किसी भी कीमत पर उसके चरणों में गिरने को तैयार हैं, पर उनमें इतना भी साहस नहीं कि अफ़ज़ल खान के पास आकर उससे मिल सकें और इसलिए यही अच्छा रहेगा कि किसी एकांत जगह पर दोनों लोग अकेले मिलें ताकि अफजल खान की शानशौकत और रुतबे से शिवाजी घबरा ना जाएँ!

अफ़ज़ल खान तैयार हो गया और फिर शिवाजी द्वारा पहले से सोचे एक ऐसे स्थान पर मिलने का कार्यक्रम तय हो गया, जिसके चप्पे चप्पे से मराठे वाकिफ थे और बीजापुरी सेना को जिसका इतिहास-भूगोल कुछ नहीं पता था!

10 नवम्बर 1659 का दिन था वो!

इस नियत तिथि को शिवाजी राजे ने अंगरखे के नीचे लौहकवच धारण किया,बिच्छू की आकृति की एक कृपाण खोंस ली और बाएं हाथ में एक बघनखा छिपा लिया और चल पड़े अफ़ज़ल खान से मिलने!

प्रतापगढ़ दुर्ग के नीचे के एक वनों से घिरे पर्वत शिखर पर यह मुलाक़ात होनी थी!शिवाजी जब मिलने के लिए तम्बू में पहुंचे, अफ़ज़ल खान ने बाहें फैलाकर उन्हें गले से लगने का न्योता दिया!

पर ये क्या? अफ़ज़ल से लगभग एक हाथ छोटे शिवाजी जैसे ही उसके आलिंगन में आबद्ध हुए, खान ने अपने एक हाथ से शिवाजी की गरदन को पकड़ लिया!इस पहलवानी पकड़ से अपनी गर्दन छुटाने और बचने का शिवाजी ने हर प्रयास किया पर असफल रहे और भूमि से ऊपर उठाये जाने लगे!

तब शिवाजी अपना दाहिना हाथ किसी तरह मुक्त करा बाएं और हाथ का बघनखा अफ़ज़ल खान की पीठ में गहरे पैबस्त कर दिया और कमर से कृपाण निकाल उसके पार्श्व में घुसेड़ दिया! इस अकस्मात हमले से वो क्रूरकर्मा हतप्रभ रह गया और चीखते हुए लड़खड़ाकर पीछे हटा!

उसके अंगरक्षक दौड़े आये और उसे निकाल ले जाने का प्रयास करने लगे पर शिवाजी के अंगरक्षकों के हाथों मारे गए और फिर एक मराठे ने अफ़ज़ल खान का भी सर काट विजयघोष के साथ ऊपर उठा दिया!

रणसिंगे बज उठे और यहाँ वहां छिपे मराठे बीजापुरी सेना पर काल बन टूट पड़े! इस अप्रत्याशित हमले से बेखबर बीजापुरी सेना को सँभलने का भी मौका ना मिला! कितने ही मारे गए और फिर जिसे जहां से मौका मिला भाग निकला!

बीजापुर समाचार पहुंचा तो वहां मातम छा गया और उनके सपनों में भी वो ‘पहाड़ी चूहा’ उन्हें आकर डराने लगा!
अफ़ज़ल खान का वध कर बीजापुर सहित सभी विधर्मियों को मराठों की शक्ति से परिचित कराने वाला वो दिन था 10 नवंबर 1659.

उस दिन उस दुष्ट के वध पर देवी तुलजा भवानी की वो मूर्ति भी मुस्कुराई थी! उस दिन हर उस मंदिर का प्रांगड़ मुस्कुराया था, जिसे उस कलियुगी महिषासुर ने अपवित्र किया था!

जगदम्बा के आशीष ने उस भवानी के लाल को एक और विजयश्री दिला दी थी! और उस महिषासुर रूपी अफजल का कटा सर माता जीजाबाई के चरणों मे भेज दिया गया और ततपश्चात राजे ने उसके सिर को राजगढ़ के सिंहद्वार पर गाड़ देने की आज्ञा दी!

राजे की कुलदेवी तुलजा भवानी की मूर्ति को अपवित्र कर अट्टहास करने वाला असुर भवानी के उस बेटे द्वारा मारा गया था!

इतिहास में इस लड़ाई को प्रतापगढ़ की लडाई कहते हैं!

जनश्रुति के अनुसार अफजल से मुलाकात से एक रात पहले स्वयं भवानी ने शिवाजी को स्वप्न में दर्शन दिए थे और कहा था कि तुम निश्चिंत होकर भेंट करने जाओ, मैं स्वयं तुम्हारी रक्षा करूंगी! और राजे, साक्षात देवी का दर्शन पाकर उस सर्दी की रात में भी पसीने पसीने हो उठे थे और रातभर “जगदम्बे! जगदम्बे!” करते रहे थे!

अफजल खाँ पर विजय के पश्चात उसके के डेरों से शिवाजी राजे को भारी मात्रा में हथियार, तम्बू, तोपें, हाथी-घोड़े तथा दस लाख रुपये नगद प्राप्त हुए! शिवाजी ने अपने सैनिकों को एकत्रित करके उन्हें धनराशि पुरस्कार में वितरित कर दी! घायलों एवं मृतकों को धन एवं पेंशन देकर सहायता की गई! शिवाजी की इस विजय का समाचार आग की तरह दूर-दूर तक फैल गया!

“अफजल हमें मारने आया था, परन्तु उसकी मृत्यु के साथ ही वैमनस्य भी समाप्त हो गया!” यह वचन था उस महान राजा का और उन्होंने पूरी इस्लामिक रीति से उसका अंतिम संस्कार किया और साथ ही अफजल खान की समाधि भी बनवाई!

इस तरह राजे के चमात्कारिक किस्से हिन्दू प्रजा में व्याप्त होने लगे और हिन्दू प्रजा को लगने लगा कि यह राजा, हिन्दुओं की रक्षा के लिए ही ईश्वरीय सहायता के रूप में भेजा गया है!


आशीष शाही

पश्चिम चंपारण, बिहार

20/10/2020

1 COMMENT

  1. SANATAN or Rashttravaaad ko badawa dene ke liea Dhanyaavaad.
    Jai Shree Raam..
    Jai Shivaaji Jai Bhawaanii.

    Har har Mahaadev.

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