“शिवसेना की ओर से कर्बला में इमाम हुसैन और उनके साथियों की कुर्बानी पर शिवसेना का सलाम”। जी हाँ आपने सही पढ़ा, इसी वाक्यांश के साथ कई सारे पोस्टर दक्षिण मुंबई के कौने कौने में लगे हुए थे। खबर पुरानी है परंतु वर्तमान परिपेक्ष्य में इस पोस्टर के मायने कुछ ज्यादा ही मजबूत हैं। कभी हिंदू सिंह कहलाने वाले बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना, कभी सीना ठोककर खुद को हिंदू समर्थक कहने वाली शिवसेना का चरित्र चित्रण करना अत्यंत आवश्यक है। “गणपति बप्पा मोरया” सिर्फ एक जयकार नहीं बल्कि महाराष्ट्र की पहचान है परंतु शिवसेना को शायद ये स्वर कानों में चुभने लगे और उद्धव सरकार ने सभी गणपति पंडालों पर रोक लगा दी। पिछली कई पीढ़ियों से अनवरत एक परंपरा को, आमजन की आस्था के पर्व को बिना जनता की मंशा जाने रोक दिया गया।
“गोविंदा आला रे” की गूंज अब नहीं सुनाई दी, किसी कान्हा ने कोई दही हांडी नहीं फोड़ी। महाराष्ट्र सरकार (शिवसेना+एनसीपी+कांग्रेस) ने कोरोना का हवाला देकर तमाम रोक लगा दीं और तुगलकी फरमान जारी कर दिया। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी इस पर तर्क देते और शिवसेना को शाबाशी देते नहीं थकते…. आखिरकार जनता को कोरोना से बचाने के लिए ये कदम उठाये गए हैं। परंतु यदि एक बार के लिए मान भी लिया जाए कि उद्धव ठाकरे जनता के इतने बड़े हितैषी हैं तो फिर बाला साहेब जिन्होंने एक समय इंडियन मुस्लिम लीग जैसे कट्टर मुस्लिम संगठन से हाथ मिला लिया था (इतिहास में नजर डालने से 1989 का साल याद आता है जब शिवसेना बाल ठाकरे ने इंडियन मुस्लिम लीग से गठबंधन किया था), उनके वारिस उद्धव ईद, बकरा ईद या मुहर्रम पर अपने खोल में घुस जाते हैं…. आखिर क्यों ?
यदि आप राजनैतिक समझ रखते हैं और शिवसेना के पिछले कृत्यों पर हल्का सा भी गौर करने की परेशानी उठाएंगे तो पाएंगे शिवसेना एक दोहरे चरित्र वाला दल है जो भगवा पहनकर मस्जिदों में नमाज पढ़ने जाता है और हिंदू आरतियों के स्वरों से उसके कानों में खून निकलने लगता है। हिंदू तो ऋषि मुनियों की संताने हैं, भला बुरा समझते हैं, पंडालों और जन समूहों के इकट्ठा होने की बात को समाज हित में स्वीकार कर चुके हैं परंतु क्या उद्धव इसी तरह की पाबंदियाँ अपने चहेते संप्रदाय पर लगा सकते हैं… क्या मस्जिदों और बाजारों में मुस्लिम भीड़ को इकट्ठा न होने देने का फरमान जारी करने का माद्दा है उद्धव ठाकरे और उनकी शिवसेना में ?