धर्म क्या है ?

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Krishna tells Gita to Arjuna Pic Credit: https://archive.org/details/MahabharataTejKumarBookDepotMahavirPrasadMishra Author: Mahavir Prasad Mishra

पहले तो महाभारत के अनुसार धर्म समझते हैं

उदार मेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिण:।
अर्थात मनीषी जन उदारता को ही धर्म कहते है

आरम्भो न्याययुक्तो य: स हि धर्म इति स्मृत:।
अर्थात जो आरम्भ न्यायसंगत हो वही धर्म कहा गया है।

स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्म: स इति निश्चय:।
अर्थात अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है।

नासौ धर्मों यत्र न सत्यमस्ति।
अर्थात जिसमें सत्य नहीं वह धर्म ही नहीं है।

यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यस्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं सधर्म:।
अर्थात जो जैसा व्यवहार करे उससे वैसा ही व्यवहार करे,यह धर्म है।

धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा:।
अर्थात धर्म ही प्रजा को धारण करता है इसलिये उसे ही धर्म कहते है।

दण्डं धर्म विदुर्बुधा:।
अर्थात ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते है।

अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्म: स सतां मत:।
अर्थात जीवों से द्रोह किये बिना जो धर्म हो संतों के मत में वही श्रेष्ठ धर्म है।

य: स्यात् प्रभवसंयुक्त: स धर्म इति निश्चय:।
अर्थात जिसमें कल्याण करने का सामर्थ्य है वही धर्म है।

धर्मस्याख्या महाराज व्यवहार इतीष्यते।
अर्थात महाराज! धर्म का ही नाम व्यवहार है।

मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिण:।
अर्थात मनीषी व्यक्तियों का कथन है कि समस्त प्राणियों के मन में धर्म है।

बुद्धिसंजननो धर्म आचारश्च सतां सदा।
अर्थात धर्म और सज्जनों का आचार व्यवहार दोनों बुद्धि से ही प्रकट होते हैं।

सदाचार: स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम्।
अर्थात वेद, स्मृति और सदाचार ये तीन धर्म के लक्षण हैं।

अनेकांत बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिण:।
अर्थात मनीषी कहते हैं धर्म के साधन और फल अनेक हैं।

धर्म हि श्रेय इत्याहु:।
अर्थात धर्म को ही कल्याण कहते हैं या कल्याण को ही धर्म कहते हैं।

अब थोड़ा वैदिक परम्परा के अनुसार जान लेतें हैं कि आखिर धर्म क्या है ?

धार्यते इति धर्म:
अर्थात जिसको धारण किया जा सके उसी को धर्म कहते है। श्रीमद्भागवत गीता में अपने उपदेश में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म की परिभाषा इस प्रकार से दी है-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अर्थात संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर॥

भगवद्गीता का प्रारंभ धर्म शब्द से होता है और भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में दिए उपदेश को धर्म संवाद कहा जाता है।
धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा जाता है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। धर्म का अर्थ भगवद्गीता में जीव स्वभाव अर्थात प्रकृति है, क्षेत्र का अर्थ शरीर से है। भगवद्गीता के अन्य प्रसंगों में इसी की पुष्टि होती है।

यथा,स्वधर्मे निधनम् श्रेयः पर धर्मः परधर्मः भयावहः,
अर्थात अपने स्वभाव में स्थित रहना, उसमें मरना ही कल्याण कारक माना जाता है।
यह धर्म शब्द गीता शास्त्र में अत्याधिक महत्वपूर्ण है।श्री भगवान ने सामान्य मनुष्य के लिए स्वधर्म पालन अर्थात स्वभाव के आधार पर जीवन जीना परम श्रेयस्कर धर्म बताया है।

श्रीकृष्ण जी की दृष्टि से धर्म का अर्थ है आत्मा (धारण करने वाला) और क्षेत्र का अर्थ है शरीर।
इस दृष्टिकोण से भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में पुत्र मोह से व्याकुल धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं, हे संजय, कुरूक्षेत्र में जहाँ साक्षात धर्म, शरीर रूप में भगवान श्री कृष्ण के रूप में उपस्थित हैं वहाँ युद्ध की इच्छा लिए मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया ?
गीता की समाप्ति पर इस उपदेश को स्वयं श्री भगवान ने धर्म संवाद कहा।

अंत में श्री कृष्ण जी ने इतना ही कहा धर्म अर्थात जिसने धारण किया है, वह आत्मतत्व परमात्मा शरीर रूप में जहाँ उपस्थित है, चूंकि भगवद्गीता को ब्रह्मर्षि व्यास जी ने मूर्त रूप प्रदान किया है तो यह बात उनके चिन्तन में रहा होगा।  
अतः व्यास जी द्वारा भगवद्गीता में धर्म क्षेत्र शब्द का प्रयोग सृष्टि को धारण करने वाले परमात्मा श्री कृष्ण चन्द्र तथा धृतराष्ट के जीव भाव से धारण किया है,और कुरुक्षेत्र के लिए धर्मक्षेत्रे शब्द का प्रयोग किया है। ‘धर्म संस्थापनार्थाय’ से भी इसकी पुष्टि होती है।

अंत में इतना ही निष्कर्ष निकलता है,धर्म क्या है? दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्त, अमर और भरा-पूरा जीवन विधान ही धर्म है।

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