Home History चौदह वर्ष के वनवास के दौरान श्रीरामजी कहाँ कहाँ रहे?

चौदह वर्ष के वनवास के दौरान श्रीरामजी कहाँ कहाँ रहे?

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प्रभु श्रीरामजी को 14 वर्ष का वनवास हुआ था। इस वनवास काल में श्रीरामजी ने कई ऋषि – मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया था। जाने – माने इतिहासकार और पुरातत्व शास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीरामजी और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीरामजी श्रीरामजी और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्ति चित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय – काल की जांच – पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में –

  1. श्रृंगवेरपुर: – श्रीरामजी को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से मात्र 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज से 20 – 22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषाद राज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।
  2. सिंगरौर: – प्रयागराज से लगभग 35.2 किमी उत्तर – पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।
  3. कुरई: – प्रयागराज जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई है। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीरामजी इसी स्थान पर उतरे थे। इस ग्राम में एक छोटा – सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।
  4. चित्रकूट के घाट पर: – कुरई से आगे चलकर श्रीरामजी अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयागराज पहुंचे थे। यहां गंगा – जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीरामजी ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरत कूप इत्यादि। चित्रकूट में श्रीरामजी के दुर्लभ प्रमाण, चित्रकूट वह स्थान है, जहां रामजी को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं, तब जब दशरथजी का देहांत हो जाता है। भरत यहां से श्रीरामजी की चरण पादुका ले जाकर, उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।
  5. अत्रि ऋषि का आश्रम: – चित्रकूट के पास ही सतना मध्य प्रदेश स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीरामजी ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि के आश्रम के आस – पास राक्षसों का समूह रहता था। महर्षि अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीरामजी ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है। प्रातःकाल जब श्रीरामजी आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, ‘तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’ श्रीरामजी ने महर्षि की आज्ञा को शिरो धार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देकर सीताजी तथा लक्ष्मणजी के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।
  6. दंडकारण्य: – महर्षि अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीरामजी ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि – आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर श्रीरामजी के नानाजी और कुछ पर राक्षस बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में श्रीरामजी के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर श्रीरामजी ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे। ‘अत्रि – आश्रम’ से भगवान श्रीरामजी मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध, सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम – लक्ष्मण मंदिर आदि।
  7. शहडोल (अमरकंटक): – श्रीरामजी वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण – पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है। वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्र प्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है। यह क्षेत्र आजकल दं।तेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है, तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है, आंध्र प्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता – रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीरामजी ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एक मात्र मंदिर है। दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।
  8. पंचवटी, नासिक: – दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीरामजी कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में श्री अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया। उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 32 किमी दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है। श्रीअगस्त्य मुनि ने श्रीरामजी को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीरामजी पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान – ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे – पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं, जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम – सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम – लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीरामजी का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है। मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीरामजी की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

  1. सीता हरण का स्थान सर्व तीर्थ : – नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया, जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई थी, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया था। श्रीरामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध – तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।
  2. पर्णशाला, भद्राचलम: – पर्णशाला आंध्र प्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना पुष्पक विमान उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था, यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी को वास्तविक हरण का स्थल माना जाता है। यहां पर राम – सीता का प्राचीन मंदिर है।
  3. सीता की खोज तुंग भद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र: – सर्व तीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीरामजी – लक्ष्मण तुंग भद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंग भद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीताजी की खोज में गए।
  4. शबरी का आश्रम पम्पा सरोवर: – तुंग भद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए, श्रीरामजी और लक्ष्‍मण, सीता की खोज में गए। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी के आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंग भद्रा नदी का पुराना नाम है। त्रवंकोर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘श्रीरामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।
  5. श्रीहनुमान से भेंट: – मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए श्रीरामजी और लक्ष्‍मण, ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने श्री हनुमान और श्री सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीरामजी ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीरामजी की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने श्रीरामजी, लक्ष्‍मण और श्रीसुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा था, तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीरामजी मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर श्रीमतंग ऋषि का आश्रम था।
  6. कोडीकरई: – श्रीहनुमान और श्रीसुग्रीव से मिलने के बाद श्रीरामजी ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन – वाटिकाओं को पार करके श्रीरामजी और लक्ष्‍मण और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीरामजी और लक्ष्‍मण ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है। लेकिन श्रीरामजी और लक्ष्‍मण की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीरामजी और लक्ष्‍मण की सेना ने रामेश्वरम शहर की ओर कूच किया।
  7. रामेश्‍वरम: – रामेश्‍वरम शहर समुद्र तट पर एक शांत समुद्र तट है, और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम शहर प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है।
  8. धनुषकोडी: – श्री वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीरामजी और लक्ष्‍मण ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुलर्निर्माण करने का फैसला लिया। छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द – गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण – पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है। इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुष कोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है, जिसमें कहीं – कहीं भूमि नजर आती है। दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया। 30 मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतु समुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू – मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

17.’नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला: – वाल्मिकी रामायण के अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है। श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनसतथा स्मारक आदि बिलकुल हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए है!

After the historic victory over great King Ravan, Lord Ram handed over the reins of Sri Lanka to his younger brother Vibheeshan and anointed him as the new ruler as per the great tradions of Bharat. Our great nation never had any territorial ambitions and never followed the imperialist tendencies of our neighbour. Indians were great traders, took religion to far and wide across the world but never conquered them.

As per the traditional folk lore Pushpak Viman was sent to travel back and brought back Lord Ram, Sita mata and Lakshman back to Ayodhya. This year has been special for all the Hindus. We have got back the Janam Sthan after 400 years, where the temple was ruthlesslessly destroyed and a Masjid was built. A great celebration is being planned and nearly 10 million earthen diyas will be lighted to celebrate the victory of Hindus.

Why does Diwali come exactly 21 days after Dussehra every year? If you don’t believe, check the calendar. Valmiki sage says that it took 21 days (504 hours) to reach Ayodhya on foot from Sri Lanka for Lord Ramachandra’s army!!!! 504 hours divided by 24 hours, the answer will be 21 days. I was surprised. To confirm, I searched on Google map out of curiosity. I was shocked to see the distance from Sri Lanka to Ayodhya on foot is 3145 km and time taken to walk is 504 hr!!!! Google Map is completely reliable these days. We celebrate Dussehra and Diwali since Tretayug, according to the tradition.

If you don’t believe me, do a Google search and share this information with others. Valmiki sage had written Ramayana with accuracy. How great is our Hindu culture. Be proud of being born in Hindu culture! Jai Shriram. Jai Shriram. 🙏🙏.

From the bottom of my heart, mind and soul, I pray for your good health, peace and prosperity. I wish all my esteemed readers a happy, safe and peaceful Diwali.

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